सामाजिक

छोड़िए लकीर पीटना

कल आसिफा थी। आज ट्विंकल है। आनेवाले दिनों में सिमरन, जूली ….ऐसी कोई भी दूधमुँही हो सकती है। इन पीड़िताओं को किसी धर्म के साँचे में कैद नहीं किया जा सकता। और न ही उन पर धर्म के लेबल लगाए जा सकते हैं जो इन मासूमों पर बलात्कार करते हैं क्योंकि दरिंदों का कोई मजहब और धर्म नहीं होता। ये लोग इंसानियत को शर्मसार करनेवाले हैवान हैं।
बारबार इसके पीछे के कारणों को ढूँढ़ा जाता रहा है। इसके पीछे का एक मूल कारण है काम-भावना। काम-शक्ति प्राणी जगत को ईश्वरीय है देन है। जिसका उद्देश्य है
सृष्टि का निरंतर संचलन। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों का प्रजनन काल सीमित होता है। मनुष्यों में आदमी बारह महीने संतान उत्पन्न करने में सक्षम होता है। महिलाएँ आयु की एक सीमा के बाद संतानोत्पत्ति नहीं कर सकतीं। आदमियों में जब यह कामुकता विकृत अवस्था तक पहुँच जाती है तो उसे दरिंदा या हैवान बना देती है। काम के नशे पर शराब का नशा, नीम चढ़े करेले के समान हो जाता है। प्रायः ऐसी अवस्था ‘बलात्कार’ जैसे अपराध को जन्म देती है।
आइए इसके पीछे के एक और कारण की तह में जाने का प्रयास करें। वह है- सार्वजनिक जीवन और फिल्मों में महिलाओं के अधनंगे लिबास। यह तथ्य निसंदेह हमारी आधुनिक और अतिशिक्षित माताओं-बहनों को कचोटेगा। उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। लेकिन तर्क समझ में आए तो सहृदयता से स्वीकारिएगा भी। अब मेरी बात को इस तर्क से खंडित करने का प्रयास होगा कि नवजात बच्ची से लेकर दस-बारह साल की लड़कियों का पहनावा कहाँ अभद्र और अशोभनीय होता है, जो अधिकांश रूप से वे बलात्कार का शिकार बनती हैं? बात एक हद तक सही
भी लग सकती है। वयस्क नारियाँ और अभिनेत्रियाँ जब ऐसी पोषाकें पहनती हैं तो हैवानों की काम भावनाओं को उत्तेजित करती हैं। ये हैवान स्क्रीन की अभिनेत्री को तो प्रत्यक्ष रूप से छू नहीं सकते। सभ्रांत परिवारों की अधनंगी लिबासवाली नारियाँ भी कमोवेश सुरक्षित ही रहती हैं या इन दरिंदों के झुंड के हाथ चढ़ गयी तो परिणाम क्या होगा, सर्वविदित है। लेकिन इन पोषाकधारिणियों से उत्पन्न और भढ़की हुई काम भावना को शांत करने का सबसे सुलभ, सरल और सुविधाजनक साधन होती हैं ये मासूम उम्र की बेटियाँ। ये बेचारी अबोध, नाज़ुक, आसानी से सुलभ होती हैं। अब इन दरिंदों को हवस मिटाने के लिए बहुत सुलभ साधन मिल जाता है। जो समय के साथ समाज को ‘आसिफा-ट्विंकल’ जैसा घाव दे जाता है। फिल्में-धारावाहिक इसके पीछे का एक और कारण हैं। महँगाई के कारण समाज का हर वर्ग टाॅकिजों में नहीं जा सकता। लेकिन वैचारिक गंदगी का एक मुख्य स्त्रोत वह भी है। टेलिविजन के धारावाहिक कहीं न कहीं इस दिशा में अहम् भूमिका निभाते हैं। विज्ञापन और धारावाहिकों के अनेक दृश्य सपरिवार देखे नहीं जा सकते। इनमें काम करनेवाली लड़कियों और उनके अभिभावक शायद आँखों के साथ अकल से भी अंधे होते हैं। या पैसों का लालच उन्हें इस ‘सभ्रांत-वैश्यावृत्ति’ के लिए प्रेरित करता है, ईश्वर जाने। क्या ये लोग स्वेच्छा से ये काम न करें तो कोई इनसे जबरन यह सब करवा सकता है? सोचिएगा।
निसंदेह इस प्रकार के अपराधों के लिए हैवान पुरुष समाज जिम्मेदार है। लेकिन जिन बिंदुओं को मैने नारियों के संदर्भ में उकेरा , क्या उन्हें सिरे नकारा जा सकता है? यदि आप स्पष्ट विरोध करते हैं तो कीजिए। आप कह सकते हैं कि महिलाएँ क्या पहनेगी इसको तय करने का अधिकार पुरूषों को नहीं। तो फिर यह भी याद रखिए कि ऐसी पोषाकों से उत्प्रेरित अपराधों के लिए सिर्फ पुरुषों को ही दोष नहीं दिया सकता। क्योंकि ऐसा अपराधी पुरूष नहीं ‘हैवान’ होता है। वह हैवान तो अपना काम कर गया। यह लड़ाई चाकू और तरबूज की है। बर्बाद तरबूज ही होता है। फिर आप उसके लिए ज़माने भर की सजाओं, प्रचार-प्रसार माध्यमों का ही प्रयोग क्यों न कीजिए। साँप गुजरने जाने के बाद लकीर पीटने से कुछ नहीं होगा। पुरुष और महिलाओं को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
अब रही सरकार की बारी। मेरा तो सरकार से आग्रह है कि इन जैसे हैवानों पर फाँसी जैसी आसान सजा से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। जिस बर्रबरता से बलात्कार किया जाता है उतनी ही बर्बर सजा का प्रावधान इनके लिए किया जाए। इन्हें सार्वजनिक रूप से हिंसक और भूखे जानवरों के पिंजरे में छोड़ दिया जाए। मानवाधिकार , मानवों के लिए है हैवानों के लिए नहीं। हैवानो के लिए ‘हैवान-अधिकार।’ ऐसी सजा से भविष्य में ऐसे घृणित अपराधियों को भी सीख मिलेगी।

— शरद सुनेरी