कहानी

कहानी – आज़ाद देश के गुलाम

पिता की चहेती दीना कुछ बरस पहले पराई हो चुकी थी। बेचारे ललकु ने अपनी हैसियत से कुछ ज्यादा ही दान दहेज दे कर बिटिया को विदा किया था। दीना के अलावा ललकु की तीन बेटियां और भी थीं पर बड़ी बिटिया के ब्याह में ललकु ने अपनी बरसों की जोड़ी हुई पाई पाई भी खुशी से लगा दी थी। मगर एक बार जो बिटिया गई तो गई… बरस बीते पर न तो वो लौटी न ही उसकी खैरियत की कोई खबर। पर फिर भी ललकु को पता था कि उसकी जुझारू बिटिया दीना जहाँ भी होगी अपने लिए जीने की बेहतर परिस्थितियां पैदा करने में जुटी होगी।

“बाबू… अभी और पढ़ने दो न हमको… ऐसा करो तुम छुटकी का ब्याह कर दो” रुआंसी सी दीना ने कहा था ललकु से

“तुम चुप्पा बैठो… चार चार बिटियाँ ब्याहनी हैं हमें… तुम्हारी माई होती तो इत्ती फिकर नहीं न होती हमें…”

गेहुंए से कुछ गहरा रंग लिए दीना पिता की इस बात पर कुछ सहमी सी हो गई थी। उसकी बड़ी बड़ी आंखों के किनारे एक पल को नम ज़रूर हुए, पर पलकों ने हमेशा की तरह झुकने और भीगने से इंकार कर दिया। चुन्नी का किनारा उंगली में जल्दी जल्दी लपेटती हुई वो चौखट से बाहर हो गई थी। गांव के ही सरकारी विद्यालय में आठवीं तक पढ़ी दीना को इधर उधर से देश विदेश की जानकारी, नियम कानूनों का इतिहास जुटाने का बहुत शौक था। खेलकूद और घर के कामकाज में चुस्त दीना को हमेशा ही गलत बात और अन्याय के खिलाफ लड़ते झगड़ते हुए देखा जा सकता था। पिता की मजबूरी को देखते हुए वो चुपचाप विदा हो गयी थी, नहीं तो अट्ठारह की पूरी होने से पहले वो कभी भी ब्याह को तैयार न होती… ये बात ललकु के साथ साथ पूरा गांव भी जानता था।

इधर दीना की ससुराल का माहौल कुछ अलग ही था… उसके पिता को पता न था कि पूरा परिवार किसी ज़मींदार के यहां बंधुवा मज़दूर था। बरसों पहले लिये गए कर्ज़ की भरपाई के लिए पूरा परिवार बाकी मज़दूरों की तरह ज़मींदार के खेतों में काम करता था। ललकु को तनिक भी खबर होती तो वो बिटिया को जगन के साथ कभी भी न बांधता।

“जगन कल सुबह से सब लोग खेतों पर पहुंच जाना, सरकार ने बुलवाया है…” ज़मींदार के दो हट्टे कट्टे लठैत ब्याह के दूसरे दिन ही आ धमके थे।”

“दीना कल से तुम्हे भी खेतों पर चलना होगा… दस बरस पहले लिए एक कर्ज़े के एवज में मेरा पूरा परिवार ज़मीदार के यहां बंधुवा मजूरी करता है…गुलाम हूँ मैं ओर अब से तू भी” पति ने एक ही सांस में फरमान सुना दिया था।

शुरू में दीना को कुछ समझ न आया कि आखिर ये कैसा कर्ज़ था जो कभी न खत्म होने का वरदान लिए हुए था। जब ज्यादा छानबीन करने की कोशिश करी तो बदले में कुछ निशान चेहरे से लेकर जिस्म तक ओढ़ने को मिले थे दीना को। पर फिर दो बच्चों की माई बनते बनते कुछ कुछ समझने लगी थी वो कि क्यों कमरतोड़ काम करने पर भी कर्ज़ चुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।

सुनो जी, मुझे कुछ दिनों अपने बाबू के घर जाने दो… कैसे न कैसे पैसे का प्रबंध करके लाऊंगी।”

“पैंतीस हज़ार की रकम कोई छोटी न है दीना… कहाँ से लावेगा तेरा बाबू”

“तुम जाने तो दो मुझे …  ज़मींदार का पैसा वापिस हो जाएगा तो हम सब लोग कहीं और काम कर लेंगे… फिर धीरे धीरे बाबू का पैसा वापिस कर देंगे।”

आखिरकार पिता की मदद से  दीना ने पैंतीस हज़ार जुटा ही लिए। जब ज़मींदार को रुपए लौटा कर जगन ने अपने परिवार की रिहाई की भीख माँगी तो पता चला कर्ज़ बढ़ते बढ़ते पांच लाख हो चुका है।

कर्ज़ लौटाने की कोशिश ने ज़ालिम ज़मीदार के ज़ुल्मों में और भी इज़ाफ़ा कर दिया था। अपनी और अपनी छोटी ननदों की ओर उठती ज़मींदार और उसके लठैतों की गंदी नज़र को भी दीना साफ महसूस कर रही थी।

“चन्दा, और महुआ के ब्याह के बारे में क्या सोची तुमने ?” जगन से पूछा था उसने

“जब तक कर्ज़ न चुकेगा सरकार ब्याह न करने देगा उनका”

“क्यों हमारा भी तो हुआ…”

“अरे बावली, हमारे ब्याह से तीन मजूर बढ़ गए सरकार के…. एक तू और दो तेरे लड़के… पर लड़कियों के  ब्याह से मजूर कम हो जाएंगे”

इतना गणित तो दीना ने भी न लगाया था, जो इतनी आसानी से समझाया था जगन ने उसे… पर उतनी ही आसानी से अपनी चेहरे की पीड़ा न छुपा पाया था वो पत्नी से।

इसी बीच एक अनहोनी और घटी… दीना का सुकुमार बालक अचानक ही तेज ज्वर से पीड़ित हो कर काल का ग्रास बन गया। न जाने क्यों दीना की आंखों से एक आँसू न गिरा। अपने आप से सवाल जवाब करती दीना का चेहरा और ज्यादा सख्त हो चला था।

एक रात दीना बगैर किसी को बताए पति ओर छोटे बच्चे को सोता छोड़ कर भाग निकली। उसे पता था बंधुवा मज़दूरी गैरकानूनी है। थाने में सुनवाई न होने पर उसने वहीं अनशन करने की ठान ली थी। आखिरकार तीन दिन बाद स्वयंसेवियों के एक संगठन और कुछ रिपोर्टर्स द्वारा मदद करने पर पुलिस का एक दल उसके गांव पहुंचा और गुलामी कर रहे सभी परिवारों को उस नरक से आज़ाद कराया।

दीना कई बरस बाद खुल कर मुस्कुराई थी। आज उसने अपने बच्चे के बदले ज़मींदार से पचास लोगों की आज़ादी खरीद ली थी… जो अब आज़ाद देश के गुलाम नहीं बल्कि आजाद बाशिंदों की तरह खुल कर जिएंगे।

डॉ मीनाक्षी शर्मा

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा