लघुकथा

गतिमान

”मौसम की तपिश को तो हम कूलर-ए.सी. से नियंत्रित कर सकते हैं, तपिश बुखार की हो तो उसे दवाई से दूर किया जा सकता है, लेकिन मन की तपिश को सहना भी मुश्किल और किसी से कहना भी. सहो तो मानसिक रोग घेर लेते हैं, कहो तो दुनिया तमाशा बनाती है.” सैर करते-करते कामिनी का कहना था.
”ऐसी कौन-सी तपिश है बहिन, बता सको तो बताओ. कहते हैं, किसी से दुःख साझा करने से मन हल्का हो जाता है और कभी-कभी कोई हल भी सुझा देता है.”
”यह तो घर-घर की कहानी है, किस-किस को बताऊं, क्या-क्या बताऊं! समाधान भी खुद को निकालना पड़ता है.” कामिनी ने शायद समाधान निकाल लिया था.
”तो फिर हमें भी बता दो, शायद हमारे काम भी आ जाए.”
”कहने को तो मेरी बहू वकील है. अपने मुवक्किलों को तो भले ही स्नेह-प्रेम और अच्छे व्यवहार की शिक्षा देती होगी, लेकिन इस पर अमल करना शायद उसके बस की बात नहीं है.” कामिनी कुछ कहते-कहते रुक गई और इधर-उधर आते-जाते लोगों का जायजा लेने लगी.
”वैसे बोलने की बहुत मीठी है, खाना भी स्वादिष्ट बनाती है, अपने पति के सामने मुझसे बहुत प्यार से बात करती है, लेकिन पीछे तानों के तीर चलाती है. जब कोर्ट की छुट्टियां होती हैं, तो वह मुझे घर में सहन नहीं कर सकती, कही-न-कहीं भेज देना चाहती है.” वह फिर रुक गई थी. घर की बात का पर्दाफाश करना आसान तो नहीं होता न!
”वैसे तो मैं भूली रहती हूं, पर एक दिन सुबह सैर करते हुए एक नजारा देखा था, सो मन की तपिश फिर बढ़ गई.” वह बोली थी.
”ऐसा क्या देखा?” मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी.
”एक युवा मोटर साइकिल पर जा रहा था. उसके साथ एक रेहड़ी चल रही थी, शायद उसी की होगी. वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद अपनी मोटर साइकिल पर बैठा रेहड़ी को एक पैर का सहारा देकर उसकी गति बढ़ा रहा था. मुझे उस मोटर साइकिल वाले में बहू और रेहड़ी वाले में बेटा नजर आ रहा था. उस युवा ने रेहड़ी को गति देने का समाधान निकाल लिया था, मुझे भी समाधान निकालना था.” वह तनिक सांस लेने के लिए रुकी.
”एक दिन मुझे बिना बताए बहू ने मेरे भाई को फोन कर दिया- ”मामा जी, बच्चों की भी छुट्टियां हो गई हैं और कोर्ट की भी, हम आज शाम आपके घर आ रहे हैं.” भाई ने मुझे फोन कर दिया- ”दीदी, आप आ रही हैं, तो कुछ दिन हमारे पास रह जाइएगा, सबकी छुट्टियां चल रही हैं. मैं कुछ कपड़े लेकर चली गई. कुछ दिन बाद वहां से मेरा दोहता अपने घर ले गया. एक सप्ताह वहां रही. फिर छोटा बेटा ले गया, मैं दो सप्ताह वहां रही. हारकर बहू ने फोन किया- ”ममी जी, बहुत दिनों से आप वहां रह रही हैं, बच्चे भी उदास हो रहे हैं, हम आपको आज लेने आ रहे हैं. अब मौजां ही मौजां हैं.”
”वो कैसे?”
”मैंने जान-बूझकर 4 हफ़्ते लगाकर, बहू की रेहड़ी वाली सोच को सही दिशा में गतिमान जो कर दिया था.” कामिनी ने सुकून से कहा.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “गतिमान

  • लीला तिवानी

    यह सच है कि मन की तपिश को कहना भी मुश्किल, सहना भी मुश्किल. कभी-कभी पास रहकर सहायता करने पर भी रिश्ते की अहमियत का पता नहीं चलता, लेकिन सास ने जान-बूझकर 4 हफ़्ते बहू से दूर रहकर उसको अपनी अहमियत समझाने का अवसर दिया. सास को अपने मन की तपिश का हल मिल गया था. रिश्तों को प्रेम से निभाने में ही समझदारी है.

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