गीतिका/ग़ज़ल

मरहम के ज़ख्म

ज़ख्म का मरहम तो आपने सुना होगा, पर मरहम के ज़ख्म नहीं सुने होंगे और ये वो ज़ख्म हैं, जिनका भरना भी मुश्किल है. आज हम ऐसे ही मरहम के ज़ख्म आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें हमें लिख भेजा है हमारे ब्लॉगर-पाठक-कामेंटेटर रविंदर सूदन भाई ने. यह खूबसूरत शायरी उन्होंने लिखी है. कल के ब्लॉग ”मरहम (लघुकथा)” के कामेंट्स में. वे लिखते हैं- ”आदरणीय दीदी, आपने मरहम लिखकर ज़ख्म और मरहम पर शायरी की शुरुआत करवा दी.” लीजिए आप भी आनंद लीजिए इस खूबसूरत शेरो-शायरी का-

वक़्त बदला और बदली-सी कहानी है,
संग मेरे हसीन पलों की याद पुरानी है,
न लगाओ मेरे ज़ख्मों पर मरहम,
मेरे पास उनकी बस यही निशानी है.

हमें आँखों से ज़ख्मों को धोना नहीं आता,
मिलती है खुशी तो उसे खोना नहीं आता,
सह लेते हैं हर गम मुस्कुराकर,
और लोग कहते हैं की हमें रोना नहीं आता.

ज़िंदगी ज़ख्मों से भरी है,
वक़्त को मरहम बनाना सीख लो,
हारना तो मौत के सामने है,
फिलहाल ज़िंदगी से जीतना सीख लो.

हम से बेदारी का सबब पूछने वाले,
आँखों से मेरी नींद चुराने निकले,
रिसते हुए ज़ख्म किसको दिखाने निकले,
हाथ में नमक लिये, मलहम लगाने निकले.
मेरी तकदीर कि सूरज को जगाने वाले,
कम-से-कम जुगनू से तो बेहतर निकले.

छुरी की नोक से ज़ख्मों पर वो मरहम लगाते हैं,
ज़ख्म भी खुद ही देते हैं खुद ही आंसू बहाते हैं,
यह कैसा प्यार है उनका कोई तो हमको समझाओ,
सितमगर हैं या दिलबर हैं, वो जो याद आते हैं.

काँच चुभे तो ज़ख्म रह जाते हैं,
दिल टूटे तो अरमान रह जाते हैं,
लगा तो देता है वक़्त मरहम इस दिल पर,
फिर भी उम्र भर निशान रह जाते हैं.

ज़ख्म नासूर हुए, इलाजे-दर्द मुमकिन न हुआ,
अश्क बहाने का मेरा सिलसिला भी देखो कम न हुआ,
मुझे हैरत हुई अपने ज़ख्मों को देखकर,
क्योंकि,
इन मासूमों के लिये अब तक, कोई ईजादे-मरहम न हुआ.

बगैर जाने-पहचाने इकरार न कीजिये,
मुस्करा कर दिलों को बेकरार न कीजिये,
फूल भी दे जाते हैं ज़ख्म गहरे कभी-कभी,
हर फूल पर ऐतबार न कीजिये.

वो तो खुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा,
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा,
हम तो समझे थे, इक ज़ख्म है भर जायेगा,
क्या खबर थी, रोगे-जान में उतर जायेगा.

अब तो आदत हो गयी है दर्द सहने की,
अपने ही ज़ख्मों में डूब कर रहने की,
खामोश तनहाई में अब दिल लगता है,
न पुकारे कोई, निगाह उठाने से भी दिल डरता है,
फिक्र होती है आंसू बहने की.

कौन किसे दिल में जगह देता है,
पेड़ भी सूखे पत्ते गिरा देता है,
वाकिफ हैं हम दुनिया के रिवाजों से,
जो भी मिलता है इक नया ज़ख्म देता है.

वो हमें भूल भी जाएं तो कोई ग़म नहीं है,
जाना उनका जान जाने से कम नहीं है,
जाने कैसे ज़ख्म दिये हैं उसने इस दिल को,
कि जिसके लिये सब वैद कहते हैं, कि कोई मरहम नहीं है.

ज़ख्म जब मेरे सीने के भर जाएंगे,
आंसू भी मोती बन कर बिखर जाएंगे,
यह मत पूछना किस-किस ने दर्द दिया,
वर्ना कुछ अपनों के भी चेहरे उतर जाएंगे.

इक-न-इक शमा अंधेरे में जलाये रखिये,
सुबह होने को है, माहौल बनाये रखिये,
जिनके हाथों से हमें ज़ख्में-निहाँ पहुंचे हैं,
वह भी कहते हैं कि ज़ख्मों को छुपाये रखिये,
कौन जाने कि वो किस राह गुजर से गुज़री,
हर गुजर-गाह को फूलों से सजाये रखिये,
दामने-यार के ज़ीनत न बने हर आंसू,
अपनी पलकों के लिये कुछ तो बचाये रखिये.

मुहब्बत में लाखों ज़ख्म खाये है,
अफसोस उन्हें हम पर ऐतबार नहीं,
मत पूछो क्या गुजरती है दिल पर,
जब वो कहते हैं हमें तुमसे प्यार नहीं.

ज़ख्म देने का अंदाज़ कुछ ऐसा है,
ज़ख्म दे के पूछते हैं अब हाल कैसा है,
किसी एक से गिला क्या करना यारो,
सारी दुनिया का मिजाज़ एक जैसा है.

ऐ ज़िंदगी तू क्यों मेरी तमन्नाई है,
ये तो बस दर्द है, अश्क है, तनहाई है,
पहली-सी मोहब्बत मुझसे न मांग,
मेरे पास अब ज़ख्म और रुसवाई है.

उम्र क्या कहूँ काफी नादान है मेरी,
सबको प्यार देना पहचान है मेरी,
आपका दिल ज़ख्मों से भरा हो तो मिलो हमसे,
दिलों को रिपेयर करने की दूकान है मेरी.

वक़्त के इस मोड़ पर यह कैसा वक़्त आया है,
ज़ख्म इस दिल का जुबां पर आया है,
नहीं रोते थे हम कांटों की चुभन से,
आज फूलों की चुभन ने हमें रुलाया है.

ज़ख्म देकर सवाल करते हो,
तुम भी जानम कमाल करते हो,
देखकर पूछ लिया हाल मेरा,
चलो कुछ तो ख्याल करते हो,
शहरे-दिल में उदासियाँ कैसी?
ये भी मुझसे सवाल करते हो,
मरना चाहें तो मर नहीं सकते,
तुम भी जीना मुहाल करते हो,
अब किस-किस की मिसाल दूँ तुमको,
हर सितम बेमिसाल करते हो,

ज़ख्म के बावजूद मेरा हौसला तो देख,
तू हंस दिया तो मैं भी तेरे साथ हंस दिया.

एहसान किसी का वो रखते नहीं मेरा भी चुका दिया,
जितना खाया था नमक मेरा, मेरे जख्मों पे लगा दिया.

दिल में झाँका तो ज़ख्म बहुत पुराने निकले,
इक फसाने से कई और फसाने निकले.
ज़ख्म खाना ही जब मुक्कदर हो,
फिर कोई फूल हो कि पत्थर हो.

न मेरे ज़ख्म पर रखो कोई मरहम,
मेरे कातिल की ये निशानी है.

गहराई प्यार में हो तो बेवफाई नहीं होती,
प्यार में कभी तनहाई नहीं होती,
प्यार जरा संभल कर करना,
प्यार के ज़ख्म की कोई दवाई नहीं होती.

पास आकर सभी दूर चले जाते हैं,
अकेले थे हम, अकेले ही रह जाते हैं,
इस दिल का दर्द दिखाएं किसे?
मरहम लगाने वाले ही ज़ख्म दे जाते हैं.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

2 thoughts on “मरहम के ज़ख्म

  • रविन्दर सूदन

    आदरणीय दीदी, शब्द से खुशी शब्द से गम, शब्द से पीड़ा, शब्द ही मरहम. ज़िंदगी
    का सफर इस कदर सुहाना होना चाहिये, सितम भी अगर हो तो दिल शायराना होना
    चाहिये. एक ओपन हार्ट सर्जरी की यूनिट के बाहर लिखा था: अगर दिल खोल लेते
    अपने यारों के साथ, तो आज नही खोलना पड़ता औजारों के साथ. इसीलिये यारों के
    साथ दिल खोल लिया था. अब ये ना पूछना कि ये अल्फ़ाज़ कहाँ से लाता हूँ, कुछ
    चुराता हूँ दर्द दूसरों के, कुछ अपना हाल सुनाता हूँ. आदरणीय लीला बहन जी बहुत बहुत धन्यवाद.

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर रविंदर भाई जी, हमें पता नहीं था, कि मरहम के भी ज़ख्म होते हैं और ये ज़ख्म इतने गहरे होते हैं, कि ठीक होने में ही नहीं आते. इन्हें कुरेदना तो इनको नासूर बनाने के बराबर है. कल सारा दिन आप मरहम और ज़ख्म की शायरी पर ही ध्यान लगाए रहे. यह ब्लॉग आपका है, आपको ही अर्पित. तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा!

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