कविता

चमकी बुखार से बेहाल बिहार

चारों ओर है काल का तांडव

हर ओर मचा है हाहाकार

अपनी कुर्सी में मगन हमारी

पटना और दिल्ली सरकार

अस्पताल का हाल बुरा है

गम का फैला है आलम

पत्थर को भी विचलित करता

माता का रुदन और मातम

कईयों के सारे सपने तो

मिट्टी में हैं मिले हुए

सूनी हो गई वो फुलवारी

जिसमें कई फूल थे खिले हुए

सब फूलों को तोड़ गई है

एक डायन चमकी बुखार

अपनी कुर्सी में मगन हमारी

पटना और दिल्ली सरकार

जाने क्यों थे शिथिल हुए

जाने क्या मजबूरी थी

अरे सरकारें तो आती जाती

पर बच्चों की जान जरुरी थी

सारे नेता डूबे हैं बस

सत्ता के ताने बाने में

खुद ही सोए गहरी निद्रा में

औरों को लगे जगाने में

नेताओं का शून्य संवेदन

मानवता का तिरस्कार

अपनी कुर्सी में मगन हमारी

पटना और दिल्ली सरकार

इतने दुःख इतनी पीडा़

कोई क्रूर आभास न बन जाए

कुर्सी की चिंता तुम्हारे

गले की फांस न बन जाए

कहीं न फूट पडे़ गुस्सा

राजनीति के नरकों पर

कुर्सी से खींचकर के जनता

ले न आए सड़कों पर

अभी भले लाचार है जनता

पर तब तुम हो जाओगे लाचार

अपनी कुर्सी में मगन हमारी

पटना और दिल्ली सरकार

 

विक्रम कुमार

मनोरा , वैशाली

विक्रम कुमार

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