कथा साहित्यकहानी

बेटे की विदाई

“मौसी पागल हो गई हो क्या … बेटे की शादी से पहले ही उसके लिए अपना दूसरा वाला घर ठीक क्यों करवा रही हो ?”

“अरे ऋचा, वो घर कौन सा दूर है अगली गली में ही तो है… और ठीक क्यों न करवाऊं घर… बेटा विदाई के बाद कहाँ रहेगा भला ?”

“विदाई… विदाई लड़कियों की होती है लड़कों की कब से होने लगी भला ?” ऋचा ने आश्चर्य से पूछा

“ये कहाँ लिखा है कि विदाई सिर्फ लड़कियों की ही होगी” ऋचा के प्रश्न के उत्तर में वंदना ने हँसते हुए दूसरा प्रश्न दाग दिया

“लिखा नहीं मौसी पर समाज का नियम है।”

“हाँ तो मैं भी समाज की एक ज़िम्मेदार सदस्य हूँ और इस नाते मैं भी नियमों में कुछ फेरबदल कर सकती हूँ न ?” वंदना दोबारा हँसी

“मौसी, शिखा बहुत अच्छी लड़की है और आपका बेटा भी तो आपकी इतनी देखभाल करता है… फिर ये निर्णय क्यों ? कैसे रहोगी अकेली ? क्यों कर रही हो ये सब ?

“ऋचा, शादी के बाद लड़के और लड़की के साथ साथ घर के सभी सदस्यों के कुछ सपने कुछ अपेक्षाएं होती हैं। एक ओर जहाँ लड़की कुछ स्वतन्त्रता, पति का साथ और घर गृहस्थी को सम्भालने के लिए थोड़ा समय चाहती है। वहीं दूसरी ओर ससुराल वाले सात फेरों के तुरंत बाद ही उस लड़की में … एक कुशल गृहिणी, अच्छी बहु, पत्नी, भाभी, मामी और चाची को ढूंढने लगते हैं।

“तो क्या आप इसिलए…?”

नहीं, सिर्फ इसलिए नहीं ऋचा… शादी के बाद शिखा और रवि दोनों को ही अपने ऑफिस, घर और आपसी सम्बन्धों में तालमेल बिठाना सीखना चाहिए। इसके प्रयास के लिए दोनों को ही समान अवसर भी मिलने चाहिए। मेरे सामने हो सकता है रवि घर की जिम्मेदारियों से मुँह फेरने की कोशिश करे या मैं ही बिना मतलब की टोका-टोकी….। आमतौर पर घर गृहस्थी में लड़की के माता पिता का हस्तक्षेप किसी को पसन्द नहीं आता। पर कोई ये नहीं सोचता कि तनाव लड़के के माता पिता के हस्तक्षेप से भी हो सकते हैं। इसके अलावा नई गृहस्थी में एक दूसरे को जानने समझने के लिए वक्त चाहिए होता है। घूमने फिरने या अपने हिसाब से पहनने ओढ़ने और रहने का मन भी होता है

“तो आप कौन सा रोकने वाली हो उन्हें किसी चीज़ के लिए ?”

“क्यों … क्या पता मैं सुबह जब मैं पांच बजे उठूँ तो मुझे बहु का नौ बजे तक सोये रहना या उनका रोज़ फ़िल्म देखने जाना, बाहर खाना पसंद न आए… या बहु को रोज़ रवि का देर रात तक मेरे पाँव दबाते हुए मुझसे बातें करना पसंद न आए।”

“और अगर आप गलत साबित हुईं तो ?”

“तो बहुत अच्छा है … ये घर भी तो उन्हीं का है … वो रोज़ सुबह शाम यहाँ आएं, और हाँ… अकेली तो मैं वैसे भी नहीं। अपनी पड़ोसिनों, कीर्तन मंडली, किटी पार्टी की सहेलियों और तीन पेइंग गेस्ट लड़कियों के साथ बहुत खुश हूँ मैं।” वंदना ने चाय का कप ऋचा के हाथ में पकड़ा कर उसके गाल पर प्यार से चपत लगाते हुए कहा।”

“मौसी सोच रही हूँ अच्छे से पति के लिए सोलह सोमवार रखने की बजाए अच्छी सास पाने के लिए कोई व्रत मैं भी रख लूँ” ऋचा ने मुस्कुरा कर जवाब दिया।

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा