पर्यावरण

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!

”पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!
जिसमें मिला दो लगे उस जैसा.”
यह गीत फिल्म ‘शोर’ के लिए लता मंगेशकर और मुकेश ने गाया और जया भादुड़ी और मनोज कुमार पर फिल्माया गया है. इस गीत को इन्द्रजीत सिंह तुलसी के द्वारा लिखा गया और संगीत के द्वारा लक्ष्मीकांत ने बड़ी खूबसूरती के साथ सजाया.

सचमुच पानी ऐसा ही सरल है, थोड़े-से दूध में मिलाओ तो दूध बन जाता है, लाल रंग में लाल यानी जिसमें मिला दो लगे उस जैसा. पानी स्वभाव से शीतल होता है, लेकिन आजकल पानी के भी आंसू आने लगे हैं और पानी हमें भी आंसू-आंसू रुला रहा है. पानी आंसू-आंसू रुलाए तो क्या है, हमारे पाठक-कामेंटेटर्स तो हैं न सबके और पानी के आंसू पोंछने-सुखाने के लिए. देखिए हमारे पाठक-कामेंटेटर्स की प्रतिक्रियाओं का कमाल, कितने नायाब कामेंट्स लिखते हैं!

इन प्रतिक्रियाओं में आप नाम पर न जाइएगा, देखिएगा कि हमारे ये सुधि पाठक-कामेंटेटर्स क्या-क्या नई चीजें ले आए हैं. पानी बचाने के ढेरों नए तरीके और सुकून देने वाले ये कामेंट्स आपके-हमारे दिल की आवाज बयां करते हैं. इस ब्लॉग में भी आपको अनेक नई बातें पता चलेंगी-

पानी बचाएं, आने वाला कल सुरक्षित बनाएं

 

अब हमारे सुधि पाठक-कामेंटेटर्स के कामेंट्स-
इंग्लैंड से गुरमैल भाई का इस ब्लॉग पर मेल से संदेश-
पानी के विषय में जागरुकता लाने वाली कथा है लीला बहन. पानी के बारे में सोचने का वक्त अब आ चुका है, हर एक को सोचना होगा. इस मौजू पर मैंने भी बहुत लिखा है कि मेरे ज़माने में स्वच्छ पानी और वह भी बहुत मात्रा में होता था, इसके बावजूद भी लोग वेस्ट नहीं करते थे. गाय-भैंसें तालाबों से स्वच्छ पानी पीती थीं. गाँव के बहुत लोग कुँए पर स्नान कर लेते थे. कुँए का पानी महज़ पच्चीस-तीस फीट पर दिखाई देता था. आज तीन-तीन सौ फीट की गहराई तक ट्यूबवेल बोर किए जा रहे हैं. हर तीन वर्ष में धरती के पानी का लैवल दो मीटर और नीचा होता जा रहा है. उस वक्त देश की आबादी 36 करोड़ होती थी, आज तो बोलने को भी डर लगता है. कारें, ट्रक, बसें, मोटरसाइकल बेहिसाब हो गए हैं, उन के रेडीएटरों में पानी पड़ता है और उनकी धुलाई के लिए कितना पानी लगता है, हमें पता ही नहीं. पहले लोग खेतों में नित्यक्रिया के लिए पानी के एक डिब्बे से काम चला लेते थे, आज टॉयलेट में पानी की बेतहाशा खपत होती है. इतनी जनता हो गई है कि पानी पीने और कपड़े धोने से कितनी खपत बढ़ी, कभी सोचते ही नहीं. दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह भी है कि हमारे पास नदियों का पानी था, हम तो उस को भी दूषित कर रहे हैं. नदियां सूख कर बर्बाद हो गई हैं. हम ने तो गंगा को भी नहीं बक्शा, कहने को हम मैय्या कहते हैं, मगर हम तो आस्था के नाम पर मृत शरीर भी इन में विसर्जित कर रहे हैं. जैसी लघुकथा आप ने लिखी, औरों को भी लिखनी चाहिएं ताकि लोगों की आँखें खुल सकें. गुरमेल भमरा

सुदर्शन खन्ना लिखते हैं-
कितने बेरहम हैं हम! जल की प्रचुरता वाले क्षेत्रों में रहने वाले यह सोच कर निश्चिन्त न हों कि उनके यहां कोई समस्या नहीं है. समय बदलते देर नहीं लगती और ऐसा वक़्त भी आ सकता है जब जल से खेलने वाले भी जल को तरस जाएं. जो हो रहा है वह चेतावनी है और न संभले तो हमारी बेरहमी पर जल की किल्लत बेरहमी से प्रहार करेगी. उदाहरण सामने हैं. रेन वाटर हार्वेस्टिंग का ही प्राचीन रूप हैं वे बावड़ियां जो उस समय के उत्कृष्ट कारीगरों द्वारा निर्मित हैं. अपनी ही सम्पदा को नष्ट कर हम क्यों खुश हो रहे हैं, यह भूल जाते हैं कि अपनी ही जड़ें काट रहे हैं. बेरहम का वक़्त साथ नहीं देता, संभल जाएं इसी में भलाई है. जल से मित्रता निभानी होगी.
और
दिल को झिंझोड़ देने वाली रचना. पानी के आंसू … क्या गज़ब की सोच … पानी को बर्बाद कर हम जीवन अमृत बर्बाद कर रहे हैं. जितनी अधिक जागरूकता फैलाई जा रही है उतने अधिक परिणाम मिलने की आशा है. पानी को बचाने का अर्थ है अपने जीवन को बचाना. कहीं डॉक्टर यह कहने को मज़बूर न हों कि इसे दिन में तीन बार दो-दो चम्मच पानी पिलाओ तो संभवतः जान बचे और पानी की तलाश में दर दर ठोकरें खाएं. रेन वाटर हार्वेस्टिंग बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है. अपने हाथों पानी को नष्ट करना विवेकहीन कार्य करने जैसा है. ऐसा न हो किसी दिन पानी खून के आंसू रोए. पानी सर से ऊपर गुजर रहा है संभलने का वक़्त है. ये भी जीवन में भूचाल ला सकता है.

कुसुम सुराना-
हो सकता है पानी के आँसूं देखकर संवेदनाविहीन मानव का दिल पसीज जाए और वो पानी की बर्बादी को रोके! मानव चाहे तो समस्या का हल निकल सकता है दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर! अपनी ही कब्र के लिए गड्ढा खोदने के बजाय वृक्ष लगाने के लिए गड्डा खोदेगा तो खुद भी जिंदा रहेगा और पर्यावरण को भी सुरक्षित रखेगा!

गौरव द्विवेदी-
पानी की ये व्यथा पढ़कर सच में लोग अवश्य ही जल संचय पर विचार करेंगें. कल ही मैंनें एक आर्टिकल पढा था कि चेन्नई में एक it कम्पनी ने पानी बचाने के लिए वर्क फ्रॉम होम का ऑप्शन दिया है, कुछ लोगों ने ac और ro से निकलने वाले पानी का भी संचय शुरू किया है और वो लोग उस पानी को बर्तन धुलने और गमलों को पानी देने के काम में ले रहे हैं. कुछ लोगों ने बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिये घरों में हौद बनवाएं हैं और उस इकट्ठे हुए पानी से महीनों अपनी गाड़ियां, अपने घरों की सफाई और बागवानी कर रहे हैं. बहुत सुकून मिला पढ़कर की लोग धीरे-धीरे ही सही लेकिन अब पर्यावरण के प्रति जागरूक हुए हैं.
और
मुझे लगता है कि जिस तेज़ी से प्रकृति और प्राक्रतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है उस पर अब सरकार और समाज के लोगों को कठोर कदम उठाने चाहिएं. किसी भी मकान, दुकान, कॉंप्लेक्स या किसी भी प्रकार की बिल्डिंग का नक्शा एक समुचित rain water harvesting system के बिना पास नहीं होना चाहिये और समय-समय पर सरकार द्वारा उसकी चेकिंग भी सुनिश्चित होनी चाहिये, साथ ही सरकार को युद्ध स्तर पर देश की सभी बड़ी-छोटी नदियों को आपस में जोड़ने का कार्य भी सुनिश्चित करना चाहिये! कार वॉशिंग या और भी किसी सर्विस सेंटर को प्रयोग किये गये पानी को रिसाइकल करके दोबारा वॉशिंग में प्रयोग करने के लिये भी किसी योजना को लाना चाहिये! सरकार और समाज को इसके लिये संकल्प लेना ही होगा और साथ ही कुछ कठोर कदम भी उठाने होंगें!!

रविंदर सूदन-
क्या पता था एक दिन पानी भी आंसू बहायेगा, रहिमन जी को बहुत पहले पता चल गया था, रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून. जब पानी नहीं मिलेगा तो इंसान पानी-पानी हो जाएगा, पानी बिन खेती न होगी, क्या पैसे को चबायेगा ? धरती टुकड़े-टुकड़े होगी, इंसान इंसान को खायेगा.

इंद्रेश उनियाल-
में जब अपने गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ कि लगभग 40% जल स्रोत सूख चुके हैं. यद्यपि अब गाँव की आबादी 80% कम हो गयी है. लोग रोजगारी की तलाश में पलायन कर चुके हैं. गाँव के पनघट में अब कोई पानी नहीं भारता अब नल से पानी आता है पर पनघट के पानी व नल के पानी में बहुत अंतर है.

चलते-चलते एक छोटा-सा नुस्खा हमारी तरफ से भी-
कोई मेहमान या मिलने वाला आता है, तो पीने के लिए पानी उससे पूछकर दीजिए. जरूरत न होने पर मत दीजिए या पास में रख दीजिए. जबरदस्ती हाथ में मत पकड़ाइए. ऐसा करने पर वह एक घूंट पीकर छोड़ देगा और बाकी पानी व्यर्थ जाएगा. पानी की एक-एक बूंद कीमती है.

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा भी हो, हमारे पाठक-कामेंटेटर्स का रंग भी देखने लायक है, जो तेरी रंगत को बचाने के लिए ढेरों नए तरीके ढूंढ लाए हैं. तेरे आंसू पोंछने के लिए उन्होंने प्यार की भाषा भी बोली है तो इंसानियत को जिंदा रखने के लिए दिल को झिंझोड़ने वाली लताड़ भी लगाई है. येन-केन-प्रकारेण वे तेरे आंसू पोंछने-सुखाने के लिए तत्पर हैं हमारे पाठक-कामेंटेटर्स. पानी, तुझे भी शुभकामनाएं और हमारे पाठक-कामेंटेटर्स को भी, जो अपने सतत प्रयास से जनता को जागरुक करने में जुटे हुए हैं, साथ ही साहित्यिक भाषा को नवजीवन प्रदान करने में लगे हुए हैं.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “पानी रे पानी तेरा रंग कैसा!

  • लीला तिवानी

    हम अपने पाठक-कामेंटेटर्स के अत्यंत आभारी हैं, जो इतने शानदर-जानदार-लाजवाब समसामयिक ब्लॉग्स और प्रतिक्रियाएं लिखकर जनता-जनार्दन की जागरुकता बढ़ा रहे हैं और देश-समाज की सेवा में तत्पर हैं.

Comments are closed.