अवाक अचला
अचला की आँखें निश्तेज होने लगी सारी कायनात मानो उसमें सुराख कर उसे निचोड़ लेना चाहती थी । फटे होठों पर जीभ फेरने की कोशिश में जीभ तालू से चिपक गई ।
व्योम से अचला की हालत देखी नहीं जा रही थी।उसने आवाज़ लगाई ; “ओ अचला जरा अपनी बाहें फैलाओ देखो मैं तुम्हें तोहफे में कुछ देना चाहता हूँ । इसे पाकर तुम फिर से षोडसी हरितिमा बन जाओगी ।”
“व्योम ; आदी मुझसे रूठ गया है , उसका कहना है मानव तेरे गर्भ से मुझे चूस-चूस कर बाहर निकाल रहे हैं तुम ऊफ्फ तक नहीं करती । देखो मैं अब विलुप्ति के कगार तक पहुँच गया हूँ । तेरा सीना भी छलनी हो रहा है , क्यों नहीं तेरी संतान को तेरी तड़प दिखाई दे रही है। अब क्षितिज के प्रयास से भी मैं वापस नहीं आऊँगा ।करने दो अपने बच्चों को मनमानी मैं ही रूठ जाऊँगा ।”
“ओहह ; तभी मैं कहूँ तुम इतनी विक्षिप्त क्यों हो रही हो ? तुम माँ हो और मैं पिता ; मेरा प्यार सबने देखा है अभी तक नियंत्रित था , अब मेरा कहर देखेंगे ।”
ऐसा कहते हुए व्योम अपनी अँजुरी में नीर भर कर अचला की ओर उछाल दिया ।
भयंकर गर्जना के साथ बादल फटते चले गये अचला जलप्रलय में खुद को संभाल नहीं पाई। चारों ओर कोहराम एवं तबाही ।
अचला के होठों से अस्फुट स्वर निकले ; “व्योम अपनी निलाया संभालो हमारे बच्चों की चित्कार से पूरी वसुंधरा तबाह हो रही है।”
“हाहाहा… अपनों की पीड़ा का अहसास बच्चों को कराओ अचला तभी सही मायने में अचल रह पाओगी।”
— आरती राय, दरभंगा
बिहार