सामाजिक

विद्यार्थियों में बढ़ता तनाव

एक बड़े शायर का शेर है कि
 “हर लफ्ज़ से चिंगारियां निकलती हैं
कलेजा चाहिए अखबार देखने के लिए  “
सामान्य जीवन मे प्रगति और तनाव पर्यायवाची बनते जा रहे हैं ! भले ही ये साहित्यिक हिंदी में पर्यायवाची ना हो लेकिन ये व्यावहारिक जीवन में जरूर पर्यायवाची है ! आज जो जीतना आधुनिक है, भौतिक सुख के साधन है ,जीतना धन है वो उतना तनाव में है! हम साधन और धन के चक्कर में साध्य को प्राप्त कर ही नहीं पाते हैं ! व्यक्ति जब दो जून की कमाने की पहली बार सोचता है तो उसे लगता है कि बस पेट भर तो समझो जन्नत है और हमे कुछ नहीं चाहिए!  लेकिन रोटी से लेकर Lamborghini तक का सफर तय करने के बाद भी उसे सूकून नहीं है, आपाधापी उतनी ही आज भी है जितनी कि कल दो रोटी के लिए थी!
जो Longines आप को बड़ा मनुष्य बनती है, उसे छोड़कर सारा ध्यान इस तरफ दिया जा रहा है साहित्य बाद की बाद  अध्यात्म बाद की बात है, दर्शन बाद की बात है पहले दो रोटी की व्यवस्था की जाय!
 शिक्षा एक बेहतर मनुष्य बनाने की यात्रा से लेकर रोटी तक गयी , बात रोटी तक भी ठीक थी कि लेकिन glamrisation and modernization से इंसान का ध्यान सुख के साधन जुटाने में ही बीत जाता है और वह इस सुख आनन्द नहीं ले पाता है! Glamorous life जीने के लिए शिक्षा व्यवस्था ने जीवन व्यवस्था को खतरे में दाल दिया है ! जो शिक्षा पहले जीवन सुलझाने के लिए दी जाती थी, कि लाइफ को जिया कैसे जाए, अब वही जीवन को उलझा रही है! अब तो paramameter भी माना जाने लगा है कि जो जितना ज्यादा पढ़ा लिखा होगा वो उतना ही ज्यादा गम्भीर दिखेगा ! और यही सबसे बड़ा कारण भी है कि तनाव कि आप कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले आप जानने की कोशिश जरूर करते हैं कि ये कॉलेज का रिकॉर्ड क्या है  placement के लिए companies कैसी आती है, पैकेज क्या देती है! इतना सारा रायता तो एडमिशन लेने के पहले ही फैलाया जाता है! तो सोच के देखिए जो इतने महत्वकांक्षी होकर, घर वालों की उम्मीदें और सपनें लेकर, सब कुछ छोड़कर, अगले कुछ सालों के लिए अपने आप की आहुति देने जाता है, और कुछ समय बीतने के बाद एहसास होता है कि सपने तो पूरे हुए नहीं, पैकेज जो सोचा था वो मिला नहीं, न्यायधीश बनना था बना ही नहीं ! तो फिर तनाव जैसी चीजे जीवन का हिस्सा बन जाती है और कई वो आत्महत्या और डिप्रेशन के रूप में सामने आती है!
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि Longines की परंपरा को आगे बढ़ाया और अपनाया जाए ? शिक्षा में सफलता के मानक को दुबारा से  सेट किया है! तनाव मुक्त शिक्षा व्यवस्था, जो किसी भी व्यक्ति की कार्यक्षमता  को कम करती है उसकी जगह कुछ और नहीं सोचा जा सकता है?!
और जिन्हें बड़े सफलताएं मिल भी गयी क्या वो खुश हैं ? अगर नहीं तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था किस काम की जो सिर्फ हस्ताक्षर करना सिखाती हो? अकबर इलाहाबादी भी इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायधीश थे, उन्होंने लिखा है
“क्या कहें साहब कि क्या, काम ए नुमाया कर गए
  B.A किया, नौकर बने, पेंशन मिली और मर गये”
बेहतर यही होगा कि अंध शिक्षा और डेवलपमेंट के अन्तर को समझा जाए! इको अहम बहुश्यामा : की परंपरा भी बनी रहे और मनुष्यता भी जिंदा रहे डेवेलपमेंट भी रहे! लेकिन मनुष्यता के बदले में आधुनिक और आर्थिक विकास हो ये ये स्वीकार्य नहीं है
  अनुराग पाठक

अनुराग पाठक

S/o-चंद्र देव पाठक Add - हवेली खास बड़ेबन बस्ती उत्तर प्रदेश Pin - 272001 Mob_9628818800