लघुकथा

कृपाशंकर

आंसू किसी के भी हों, देखकर चुप रहना मुश्किल होता है. कृपाशंकर के साथ भी ऐसा ही था, हालांकि अपने आंसू पी लेने में वह बचपन से ही माहिर हो गया था. मरता करता भी क्या भला!
अपना कहने के नाम पर उसका कोई भी तो अपना सगा नहीं था. माता-पिता कब और कैसे स्वर्गवासी हो गए, उसे पता नहीं था. घर जरूर उसका था, पर वह घर में रहा ही कब! जिसने खाना खिलाया, उसी के घर पड़ा रहता, उसी की चाकरी करता. ऐसे मुफ्त के नौकर की सबको जरूरत होती थी, सो उसको रोटी के लाले कभी नहीं पड़े. उसकी उम्र बढ़ती रही, नाम घटते-घटते कृपा रह गया, घर तो हाथ से निकल ही गया था. जिसने उस पर कब्जा कर लिया, कुछ ले-देकर कागज भी अपने नाम बनवा लिए. अब कृपा सबकी कृपा का मोहताज था.
जिसका कोई नहीं होता, उसका भी एक साथी होता है. उसी अंतर्यामी ने एक गाड़ीवान को उसका पालनहार बनाकर भेज दिया था. वह उस गाड़ीवान की गाड़ी में बैठकर उसके गांव आ गया और सबका चहेता बन बैठा. अब उसके पास गाड़ी भी थी, घर भी था, मां भी और रोटी का ठिकाना भी, फिर भी सहायता करने की उसकी आदत ने उसको सबका प्यारा-दुलारा बना दिया. गाड़ीवान का बेटा भी उसी की उम्र का था, पर उसे गाड़ी चलाने का शौक तनिक भी नहीं था. फिर बैलों की सेवा करना भी कौन आसान काम था! पर कृपा तो बना ही सेवा के लिए था. हां, गाड़ीवान का बेटा छनकू उसके खेलने का साथी भी था और उसे तनिक पढ़ा-लिखा भी देता था. उसी पढ़ाई-लिखाई ने कृपा को गाड़ी वाला मुंशी बना दिया था. सबका हिसाब-किताब करना, शहर ले जाना, उनकी नालिश का जवाब-तलब वह आसानी से कर लेता. न जाने यह कला उसने कहां से सीख ली!
एक बार सरपंच की कोई नालिश आन पड़ी थी. कृपा उनको शहर ले गया. सरपंच ने रास्ते में ही उसके बचपन की गाथा जान ली थी और पढ़ा-लिखा मुंशी होकर अपना घर छुड़वाने की ललक उसके मन में जगा दी, साथ देने का वादा भी किया था.
इतने बड़े सरपंच को गाड़ीवान कृपा के साथ आया देखकर कृपा के सब पुराने साथी इकट्ठे हो गए थे. सब उसके जितने बड़े और समझदार भी हो गए थे, सो घर वापिस मिलने में देर न लगी. सरपंच तुलसीदास की चौपाई पढ़ते थे-
”जापर कृपा राम की होई, उस पर कृपा करे सब कोई.”
अब कहने लगे-
”जापर कृपा स्वयं की होई, उस पर कृपा करे सब कोई.”
कृपा का सेवाभाव ही उसकी कृपा बन गया था. सरपंच ने उसके घर को ठीक-ठाक करवा के अपनी बेटी कृपाशंकर के साथ ब्याह के विदाई करवा दी.
गाड़ीवान ने उसको गाड़ी देनी चाही, पर कृपाशंकर ने गाड़ी के लिए एक सेवक रखकर छनकू को मांग लिया था, क्योंकि अपने अभिन्न सखा के विछोह में छलक आए छनकू के आंसू वह नहीं देख सकता था. छनकू ने ही तो उसको पढ़ना-लिखना सिखाकर कृपा से फिर कृपाशंकर बना दिया था, उसका उन्नयन करना भी तो बनता था न!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “कृपाशंकर

  • लीला तिवानी

    ढूंढोगे अगर तो रास्ते मिलेंगे,मंजिल की फितरत है खुद चलकर नहीं आती.कृपाशंकर ने सेवा को अपना सच्चा साथी बनाकर अपनी मंजिल को पा लिया था.

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