लघुकथा

खोज

आत्महत्या करने के इरादे से वह घर से निकला था, लेकिन अब खोज में चल पड़ा था. उसे खुद भी हैरानी हो रही थी. स्मृतियों ने अपना पिटारा जो खोल दिया था.
वह रात को आत्महत्या करने की बात सोचकर सोया था, लेकिन सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए. सुबह उसकी नींद देर से खुली, तब तक सब जाग चुके थे. सहज रूप से उसने सबके साथ चाय पी और मन में नदी में छलांग लगाने का पक्का इरादा लिए रोज की तरह मोबाइल लेकर सैर के लिए निकल पड़ा. वह अपने उसने मोबाइल पर सुना-
एक बार महाकवि कालिदास किसी बस्ती से गुजर रहे थे. रास्ते में उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी. कालिदास पास के एक घर में गए और बोले-
”माते पानी पिला दीजिए, बड़ा पुण्य होगा.”
”बेटा, मैं तुम्हें जानती नहीं हूँ अपना परिचय दो.” घर की वृद्ध महिला ने बाहर आकर कहा.
”पथिक.”
स्त्री बोली- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं- सूर्य और चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते हैं.”
”मैं मेहमान हूं.” कालिदास ने अचकचाकर कहा
”तुम मेहमान कैसे हो सकते हो! संसार में दो ही मेहमान हैं- पहला धन और दूसरा यौवन, इन्हें जाने में समय नहीं लगता.” स्त्री बोली.
”मैं सहनशील हूं.” हताश कालिदास के मुख से निकला.
”नहीं, सहनशील तो दो ही हैं- पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है. उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है. दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं.”
”मैं हठी हूं.” कालिदास कहते भी तो क्या और कैसे कहते!
”हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं. सत्य बताएं ब्राह्मण कौन हैं आप?”
”फिर तो मैं मूर्ख ही हूं.” कालिदास का विद्वता का अहंकार चूर-चूर हो चुका था.
”नहीं, तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो! मूर्ख दो ही हैं- पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए गलत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है.”
कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे.
भारत की राजधानी दिल्ली से बी.एस.सी. करने का तर्क-वितर्कों से सबको आहत करने का उसका अहंकार भी चूर-चूर हो चुका था. सबको अपने आत्माभिमान के कारण तर्क-वितर्कों से गलत ठहराने, हताशा के चलते व्यर्थ ही धमकाने और क्रोधित होने की अपनी आदत से सबसे कट चुका था. इसी हताशा ने ही शायद उसे आत्महत्या का इरादा करने पर विवश कर दिया था. वह भी अपने भटकते कदमों को सत्पथ पर चलाने के लिए उस वृद्धा जैसे किसी विद्वत्जन की खोज में चल पड़ा था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “खोज

  • लीला तिवानी

    व्यक्ति में आत्माभिमान के साथ क्रोध भी हो तो उसका सर्वनाश जो आता है. क्रोध हताशा आदि अनेक दुर्गुणों का जनक है. क्रोधी व्यक्ति हत्या भी कर सकता है तथा कोई भी अनुचित कदम उठा सकता है. क्रोध महासंकट है. वह भटका देता है. भटकते कदम निराशा और हताशा को जन्म देते हैं, इनसे बचने के लिए किसी उपाय या आधार की खोज जरूरी है.

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