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स्वनामधन्य बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय का ऋषि दयानन्द के जीवन साहित्य में प्रमुख स्थान

ओ३म्

ऋषि दयानन्द के अनुसंधान प्रधान जीवन चरित लेखकों में स्वनामधन्य पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी का नाम प्रमुख विद्वानों में है। आपके द्वारा प्रणीत ऋषि दयानन्द के दो लघु एवं एक वृहद जीवन चरित उपलब्ध होता है। आपने ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का खोजपूर्ण जीवन चरित भी लिखा है। आपकी अन्य कुछ कृतियां भी हैं। आपके द्वारा लिखित दयानन्द चरित ग्रन्थ का सम्पादन आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी ने किया था। आपके जीवन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है कि स्वामी दयानन्द के जीवनचरित की गंभीर गवेषणा करनेवाले तथा जीवन विषयक तथ्यों की खोज में वर्षों तक अहर्निश प्रयत्नशील बंगाली लेखक देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय का निज जीवनवृत कुछ भी उपलब्ध नहीं है। जिस प्रकार अंग्रेजी साहित्यकार डॉ0 सैमुअल जॉनसन की विस्तृत जीवनी लिखने में बॉसवेल के प्रयत्नों की प्रशंसा की जाती है, उसी प्रकार स्वामी दयानन्द के जीवन-विषयक सूत्रों को एकत्रित करने, व्यवस्थित करने तथा बाद में उन्हें एक साहित्यिक जीवनचरित का रूप देने में मुखोपाध्याय महाशय के योगदान को सदा श्लाघा की दृष्टि से देखा जायेगा।

डॉ0 भारतीय आगे लिखते हैं कि कहा जाता है कि सुप्रसिद्ध़ बंगला-लेखक तथा इतिहासकार रमेशचन्द्र दत्त के अनुरोध से देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने स्वामी दयानन्द के जीवनचरित-लेखन का कार्य हाथ में लिया था। आर्यसमाज कलकत्ता के प्रधान राजा तेजनारायण सिंह से प्राप्त आर्थिक सहायता से मुखोपाध्याय जी ने देश के उन सभी भागों का भ्रमण किया, जहां से स्वामी दयानन्द के जीवन-विषयक तथ्यों की जानकारी प्राप्त हो सकती थी। इस भ्रमण में वे पंजाब से महाराष्ट्र और गुजरात से बंगाल तक गए और उन सभी स्थानों पर पहुंचने का प्रयत्न किया जिन्हें स्वामी दयानन्द के पदार्पण का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इस प्रकार अपने चरित-नायक के जीवन-विषयक विच्छिन्न सूत्रों का संग्रह करने में मुखोपाध्याय जी को अकथनीय प्रयास करना पड़ा। विभिन्न व्यक्तियों से भेंट कर स्वामी जी विषयक इतिवृत को जानने तथा उसे लेखबद्ध करने के अतिरिक्त उन्होंने तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित दयानन्द-विषयक विवरणों को भी एकत्रित किया। इस प्रकार जीवनचरित-विषयक विभिन्न उपादानों का संग्रह कर उन्होंने जीवनी-लेखन का कार्य हाथ में लिया।

पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी को ऋषि दयानन्द के जन्म स्थान की खोज करने का श्रेय प्राप्त है। उन्होंने ही मौरवी राज्य का विस्तृत भ्रमण करके पता लगाया था कि ऋषि दयानन्द जी का जन्म स्थान मौरवी राज्य का टंकारा ग्राम है और स्वामी जी के पिता का नाम करसनजी तिवारी था। यह टंकारा ग्राम व नगर मौरवी नगर से राजकोट को मिलाने वाली सड़क पर स्थित है। अपने सम्पादकीय में डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी ने पं0 मुखोपाध्याय जी के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें भी लिखी हैं। वह बताते हैं कि पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने दयानन्द के आविर्भाव की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करते हुए सप्रमाण सिद्ध किया है कि भारत के अतिरिक्त यूरोप तथा एशिया के अन्य किसी देश में परमात्मा की सर्वोच्च सत्ता तथा उसकी उपासना का वैसा सूक्ष्म, तलस्पर्शी तथा मार्मिक विवेचन नहीं हुआ, जैसा इस देश के प्रज्ञा के धनी ऋषियों द्वारा हुआ था।

 

डॉ0 भवानीलाल भारतीय जी ने यह भी बताया है कि पं0 मुखोपाध्याय जी की मान्यता है कि परमात्मा की एक अद्वितीय और दिव्य सत्ता का जैसा समाधानकारक विवेचन वेद तथा उपनिषदादि ग्रन्थों में मिलता है, वैसा संसार के किसी धर्म या मत में नहीं मिलता। एक स्थान पर भारतीय जी ने यह भी बताया है कि मुखोपाध्याय जी के अनुसार आर्यों के साहित्य के अतिरिक्त पृथिवी की किसी अन्य जाति के साहित्य में विश्वविधाता को ‘प्राणस्य प्राणः’ अर्थात् ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण है, इस जैसे मार्मिक वचन से अभिहित नहीं किया गया है।

लेखक की यह रचना मूलतः बंगला भाषा में थी इसका हिन्दी अनुवाद पं0 घासीरामजी, मेरठ ने किया था। उन्होंने अनुवादक की भूमिका में अनेक महत्वपूर्ण बातें लिखी है। वह कहते हैं कि ऋषि दयानन्द इस काल के स्यात् सबसे पहले भाष्यकार हैं जिन्होंने देव शब्द के सच्चे अर्थों का प्रकाश किया। उन्होंने बतलाया है कि देव किसी योनि विशेष का नाम नहीं है। वह सब पदार्थों के लिए, चाहे जड़ हों या चेतन, प्रयुक्त हो सकता है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है कि यज्ञ उसका नाम है जहां विद्वान् महात्मा-जन एकत्रित होकर वायु-जल की शुद्धि और रोग निवृत्ति के लिए अग्निहोत्र करें या अन्य उपायों से शिल्पशिक्षा, आध्यात्मिक विद्या द्वारा मनुष्यों का कल्याण करें। इस भूमिका में पं0 घासीराम जी द्वारा एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी कही गई है कि दयानन्द में सब-कुछ अपना था, वह किसी विदेशी का ऋणी नहीं था। सौभाग्यवश वह अंग्रेजी से सर्वथा अनभिज्ञ था, नहीं तो यह कहा जाता कि उसने अपनी सुधार-पद्धति अंग्रेजी पुस्तकों से ली। प्राचीन संस्कृत-साहित्य-भण्डार ही दयानन्द का आकर था जिसमें से उसने वे बहुमूल्य रत्न निकाले थे। इसीलिए दयानन्द विशेष अर्थों में हमारा था।

हमने इस लेख में ऋषि दयानन्द के एक प्रमुख जीवनी लेखक बंगला भाषी विद्वान पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी का उल्लेख कर उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण कार्य ऋषि दयानन्द के जीवन चरित की खोज व लेखन की चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह लेख पसन्द आयेगा। हम यह भी बता दें कि पं0 देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी की पुस्तक दयानन्द चरित का प्रकाशन मैसर्स विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली-110006’ से सन् 2000 में हुआ था। पुस्तक में कुल 232 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य 75 रुपये है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। इन्हीं प्रकाशक से लेखक द्वारा रचित एक लघु एवं वृहद जीवनचरित का प्रकाशन भी हुआ है। जिन पाठकों के पास यह तीन ग्रन्थ न हो, वह प्रकाशक से उनके फोन नं0 011-23977216 से सम्पर्क कर सकते हैं।

वैदिक आर्य साहित्य के अध्ययन एवं प्रचार को समर्पित विद्वान श्री भावेश मेरजा जी ने भी लेख पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। उनकी पंक्तियाँ महापुरुषों के जीवन चरितों की कुछ न्यूनताओं पर प्रकाश डालती हैं और जीवन चरित के लेखकों के पुरुषार्थ एवं त्याग की प्रसंशा भी करती हैं। उनके विचार हैं “पण्डित लेखराम, बाबू देवेन्द्रनाथ आदि महर्षि दयानन्द जी के आद्य जीवन-चरित्रकारों के हम ऋणी हैं। यदि इन महानुभावों ने महर्षि जी के जीवनचरित्र के लिए शोध, साधना, यात्राएं, तपस्या नहीं की होती तो महर्षि जी विषयक हमारी जानकारी कितनी कम होती। महर्षि जी की जो आत्मकथा है वह तो एक १५-२० पृष्ठ की लघु पुस्तिका मात्र है। अपने बारे में पूना में दिया गया उनका व्याख्यान भी अति संक्षिप्त है। विस्तृत आत्मकथा के अभाव में इन आद्य जीवन-चरित्रकारों का योगदान अति महत्त्वपूर्ण अनन्य है। यह भी सत्य है कि ये जितने भी जीवन-चरित्र उपलब्ध हैं वे सब मिलकर भी महर्षि जी के जीवन के अमुक अंशों को, मुख्य-मुख्य कुछ प्रसंगों को ही हमारे समक्ष व्यक्त कर पाते हैं। चरित्रनायक की अनेकानेक गतिविधियों का, उनके अनेकानेक मानसिक व्यापारों का, अगणित संवादों, शास्त्रार्थों तथा व्याख्यानों का, विभिन्न स्थानों पर हुए अनेक प्रकार के शुभ-अशुभ अनुभवों का – इन सभी का समावेश तो जीवनचरित्र में हो पाना, किया जाना असम्भव है। अतः यदि कहा जाए कि जीवनचरित्र प्रायः अपूर्ण ही होते हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं। परन्तु अपूर्ण होते हुए भी ये जीवनचरित्र अमूल्य होते हैं। इस पोस्ट के माध्यम से बाबू देवेन्द्रनाथ जी का आपने स्मरण कराया, एतदर्थ आपका आभार।”

युवा समर्पित आर्य विद्वान डॉ. विवेक आर्य जी ने इस लेख के प्रारूप को पढ़कर हमें लिखा है कि पंडित देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी का चित्र उपलब्ध नहीं है। उनका योगदान अप्रतिम है। भारत सुदशा प्रवर्तक की 1907 की फाइल मेरे पास है। पंडित देवेन्द्रनाथ बाबू मेरठ पधारे थे। मेरठ आर्यसमाज में उनका उपदेश हुआ था। आप बंगाल में आर्यसमाज का गुरुकुल खोलना चाहते थे। हम डॉ. विवेक आर्य जी को इसके लिए हृदय से धन्यवाद् करते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य