यात्रा वृत्तान्त

कश्मीर यात्रा : एक अनुभव

जुलाई के दूसरे सप्ताह में हमने अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ कश्मीर का भ्रमण किया। कश्मीर में आतंकवादी घटनायें लगभग समाप्त हो जाने के कारण हमने यह हिम्मत की और ईश्वर की कृपा से यात्रा निर्विघ्न सफल रही।
कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी होगी, इसका अनुमान हमें था, लेकिन इतनी कड़ी होगी इसकी कल्पना नहीं थी। श्रीनगर एयरपोर्ट से ही हमें कड़ी सुरक्षा से गुजरना पड़ा। हमारा कार्यक्रम पहले पहलगाम का भ्रमण करने का था। पहले से तय टैक्सी हमारी प्रतीक्षा में थी। उसमें बैठकर हम अपना सामान रखकर सीधे पहलगाम की ओर चले। शहर से बाहर ही श्रीनगर-जम्मू हाईवे पर पहुँचते ही हमें सुरक्षा रुकावट का सामना करना पड़ा। पता चला कि उस दिन (8 जुलाई को) आतंकी बुरहान वानी की बरसी थी, जिस पर आतंकियों ने वारदातें करने की धमकी दे रखी थी, इसलिए सडक बन्द थी।
करीब आधा घंटे इंतजार करने के बाद हमें आगे जाने की अनुमति मिली, लेकिन पहलगाम की ओर जाने वाले सीधे रास्ते पर नहीं मुड़ने दिया गया और आगे जाकर मुड़ने की बात कही गयी। अतः हमारी टैक्सी जम्मू हाईवे पर काफी आगे गयी ताकि चक्कर लगाकर फिर पहलगाम की ओर मुड़ सकें। रास्ते में पुलवामा आया। हमारे टैक्सी ड्राइवर गुलजार ने हमें बताया कि सेना के काफिले पर यहीं हमला किया गया था। उससे आगे बढ़ने पर हमारी गाड़ी जैसे ही मीरपुरा के निकट पहुँची, वैसे ही सड़क एकदम बन्द होने की सूचना मिली। वे हमें न तो आगे जाने दे रहे थे और न वापस श्रीनगर लौटने दे रहे थे। हमारी तरह और भी सैकड़ों यात्री इसी तरह फँसे हुए थे।
सौभाग्य से, वहाँ पास में ही भारतीय खाद्य निगम का एक गोदाम था, जिसमें यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। हमें कहा गया कि आज कहीं नहीं जा सकते, कल सुबह निकल सकोगे, इसलिए आज यहीं रुक जाओ। सौभाग्य से वहाँ तीन चार बड़े बड़े हाॅल थे, जिनमें दरी बिछी हुई थी और रजाई गद्दे भी किराये पर लेने की व्यवस्था थी। खाने-पीने की कोई चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वहीं गोदाम के परिसर में ही दो लंगर चल रहे थे। बाथरूम और नहाने-धोने का भी अच्छा प्रबंध था। लेकिन गर्मी बहुत थी। किसी तरह लगभग 24 घंटे हमने वहाँ बिताये। फिर अगले दिन 9 जुलाई को हम 6 बजे से तैयार होकर बैठ गये, परन्तु वहाँ से निकलने की अनुमति 8 बजे ही मिली।
पूरे एक दिन की अघोषित कैद से छूटकर हम पहलगाम की ओर चले। रास्ते में सुरक्षा का बड़ा कड़ा प्रबंध था। हर 100 मीटर दूर पर स्वचालित हथियारों से लैस कमांडो तैनात था और हर गली-मुहल्ले में भी उनकी ड्यूटी थी। इसलिए हमें सुरक्षा की बिल्कुल चिन्ता नहीं थी। लगभग दो घंटे चलने के बाद हम पहलगाम पहुँचे और पहले से तय किये हुए होटल ईडन रिसाॅर्ट में अपने-अपने कमरों में गये। कमरे बहुत अच्छे बने हुए थे। वहाँ का इंतजाम अच्छा था। सबसे बड़ी बात यह थी वहाँ नेट भी अच्छा चल रहा था। यह रिसोर्ट लिड्डर नदी के किनारे पर है। वहाँ नदी की सुंदरता देखने लायक है। पानी एकदम स्वच्छ और ठंडा था। पीने पर मिनरल वाटर जैसा लगा।
उसी दिन स्नान आदि करके हम पहलगाम घूमने गये। पौनी (छोटे खच्चर) तय किये। वहाँ के पहाड़ों की चढ़ाइयाँ बहुत खतरनाक हैं। लेकिन पौनी उन पर सरलता से चल लेते हैं। पहले हम बंसारन नामक जगह पर गये, जो मिनी स्विटजरलैंड कहा जाता है। वास्तव में सुंदर जगह है, पर एकदम वीरान है। वहाँ अधिक समय तक नहीं रुका जा सकता। इसके बाद हमने एक और घाटी देखी, फिर वापस आये। वापस आते आते हम बहुत थक गये थे। लेकिन हमारे पास समय कम था और देखने की जगह बहुत थीं, अतः टैक्सी करके अरी घाटी देखने गये। वह भी काफी सुन्दर है।
लौटते लौटते शाम हो गयी थी अतः होटल आ गये। वहाँ रात्रि भोजन किया और सो गये। अगले दिन 10 जुलाई को सुबह ही हम पैदल ही लिड्डर नदी पर टहलने गये। मेरी इच्छा वहाँ स्नान करने की थी, लेकिन पानी बहुत ठंडा था, इसलिए परिवार वालों ने नहीं नहाने दिया।
दोपहर को ही हम होटल खाली करके श्रीनगर की ओर चले। वहाँ पहुँचकर पहले एक पंजाबी ढाबे में खाना खाया, फिर अपनी पहले से बुक शिकारा (हाउसबोट) में ठहरे जो डल झील में शहर की ओर बना हुआ था। ऐसे सैकड़ों हाउसबोट वहाँ बने हुए हैं, जिनमें यात्री ही ठहरते हैं। किनारे के घाट से हाउसबोट तक ले जाने की व्यवस्था हाउसबोट वाले ही करते हैं। इनमें कमरे खूब बड़े बड़े होते हैं और सारी सुविधायें भी होती हैं। लेकिन झील के बीचों-बीच होने के कारण हम अपनी इच्छा से कहीं नहीं जा सकते। दोपहर बाद हमने दो बोट डल झील में घुमाने के लिए तय कीं। केवल दो घंटे समय था।
डल झील बहुत बड़ी है। उसके चारों ओर बनी हुई सड़क की लम्बाई 32 किमी बतायी जाती है। दो घंटे में इसका थोड़ा सा भाग ही देखा जा सकता है। वैसे भी झील का अधिकांश भाग खाली है। केवल शहर से सटा हुआ भाग ही बसा हुआ है, जिसमें बड़े बड़े बाजार और सैकड़ों दुकानें हैं। एक मजेदार अनुभव हमें यह हुआ कि जब हम झील पर घूम रहे थे, तो हमारे पास एक-एक करके दर्जनों शिकारे आये, जो तरह-तरह की चीजें बेच रहे थे- चाय, काॅफी, कुल्फी, आइसक्रीम, भुट्टे, फल, सब्जी, मछली, सजावटी चीजें, आर्टीफीशियल ज्वैलरी आदि। फोटोग्राफर भी थे। लेकिन हर चीज का रेट बाजार की तुलना में बहुत अधिक था। इसलिए कुछ खरीदने का प्रश्न ही नहीं था। हम बाजार का चक्कर काटकर वापस अपने हाउसबोट पर आ गये। रात को हमने खाना मँगाया, जो बाहर से आता है, पर खाना अच्छा नहीं था। किसी तरह थोड़ा खाकर सो गये।
अगले दिन 11 जुलाई को हमें गुलमर्ग जाना था। मैं रोज की तरह सुबह ही 5 बजे उठ गया। फिर हाउसबोट से बाहर डेक पर घूमने गया। वहाँ सारी हाउसबोटें आपस में जुड़ी हुई हैं। फिर स्नान आदि से निवृत्त होकर हाउसबोट छोड़कर निकले। एक नाव से सामान किनारे पहुँचाया। फिर ढाबे पर नाश्ता करके गुलमर्ग की ओर चले। दोपहर तक हम गुलमर्ग पहुँच गये। रास्ते में हमें एक गाइड भी मिला, जो पूरे समय हमारे साथ रहकर गुलमर्ग दिखाने वाला था। वहाँ हमें बर्फ पर जाना था, इसलिए एक दुकान से बूट और रेनकोट किराये पर लिये। हमें ट्राॅली से ऊपर जाना था। टैक्सी स्टैंड से ट्राॅली केवल एक किमी दूर है और वहाँ तक सीधी सड़क भी बनी हुई है। लेकिन वहाँ तक जाने के लिए हमें घोड़े किराये पर लेने पड़े।
ट्राॅली में बैठना आनन्ददायक रहा। ट्राॅली ने हमें वहाँ उतारा जहाँ ये बर्फ शुरू होती है। वह काफी ऊँचाई तक है। ऊँचाई पर जाने और वहाँ से फिसलने के लिए गाड़ी तय की। वहाँ लोगों को एक पट्टे जैसी गाड़ी में बैठाकर रस्सियों से ऊपर खींचा जाता है। बीच-बीच में पत्थरों के कारण पैदल भी चढ़ना पड़ता है। मैंने लगभग आधी चढ़ाई खुद ही की थी। फिर वहाँ स्कीइंग करायी गयी। बहुत तेजी से कराते हैं। डर नहीं लगता क्योंकि एक आदमी साथ होता है, जिसको हम पकड़े रहते हैं। स्कीइंग करते हुए हम जहाँ पहुँचे, वहाँ से बर्फ की सीढ़ियाँ चढ़कर और ऊपर पहुँचे। वहाँ से ऊपर जाने की अनुमति किसी को नहीं होती। वहाँ से फिर स्कीइंग करते हुए हम वापस उस स्थान पर आये जहाँ से स्कीइंग शुरू की थी।
अब हमें बर्फ पर फिसलना था। हम फिसलने वाली गाड़ी में बैठकर बहुत तेजी से नीचे उतरे। रास्ते में बड़े बड़े गड्ढे थे, जिनमें तेजी से गिरने का डर लगता था। लेकिन आनन्द बहुत आया। कई लोग ट्राॅली से ऊपर तक जाते हैं, लेकिन बर्फ पर नहीं चढ़ते। वहाँ आॅक्सीजन बहुत कम है अतः हृदय रोगियों को खतरा रहता है। उस दिन एक व्यक्ति वहीं हार्टअटैक से खत्म हो गया था। हमारे साथ के तीन लोग बर्फ पर नहीं चढ़े। लेकिन मैं चढ़ा और पूरा आनन्द लिया।
फिर हम ट्राॅली में बैठकर वापस आये। घोड़े वाले हमे गुलमर्ग घुमाने ले गये। वहाँ देखने लायक कुछ खास नहीं था, बस दो तीन किलोमीटर की घुड़सवारी की। इसी के प्रति घोड़े एक हजार रुपये लिये गये, जो मेरे विचार से फालतू थे। लेकिन साथ के लोग नहीं माने।
उसी दिन हमें गुलमर्ग से लौटना था। अतः शीघ्र की वापस चले। पहले श्रीनगर पहुँचकर उसी पंजाबी ढाबे पर खाना खाया, फिर अपने होटल गये, जो पहले से बुक था। उस होटल में हमारे तय किये गये कमरों में बिजली की मरम्मत चल रही थी, अतः उसने पास के दूसरे होटल में हमारे एक रात ठहरने की व्यवस्था कर दी। वैसे तो वह होटल भी अच्छा था, पर बाथरूम की फ्लश आदि सही काम नहीं कर रही थीं। किसी तरह उनको ठीक कराया।
अगले दिन 12 जुलाई को हम पहले अपने तय किये हुए होटल में गये। वहाँ नाश्ता करके श्रीनगर घूमने निकले। उस दिन हमने शंकराचार्य का मन्दिर, चश्मे शाही और निशात बाग देखे। ये सब चीजें डल झील के आस-पास ही हैं। शंकराचार्य का मन्दिर बहुत ऊँचाई पर है। वहाँ पहुँचने के लिए लगभग 300 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। चश्मे शाही भी सुन्दर बाग है, जिसमें अनेक तरह के गुलाब के फूल खिले हुए थे। वहाँ पानी का एक सोता है, जिसका पानी बहुत मीठा और ठंडा है। निशात बाग बहुत बड़ा है। यह मैसूर के वृन्दावन गार्डन की तरह सीढ़ियोंदार है। एक के बाद एक सात तलों पर यह सुन्दर बाग बना हुआ है। बीचों बीच एक नहर भी बहती है, जिसका पानी ठंडा है पर गन्दा था। कई बच्चे उसी में नहा रहे थे। हम शालीमार बाग भी गये, पर वह भी निशात बाग जैसा ही लगा।
अगले दिन 13 जुलाई को हमारा मूल कार्यक्रम तो सोनमर्ग जाकर ग्लेशियर देखने का था। पर एक दिन पहले पता चला कि वहाँ अगले दिन सड़कें बन्द रहेंगी, क्योंकि 1931 में श्रीनगर में 80 लोग सेना की गोलियों से मारे गये थे। उनकी याद में उस दिन हड़ताल थी। सोनमर्ग का रास्ता भी पहलगाम होकर है, इसलिए हमने वहाँ जाने का विचार त्याग दिया और उसकी जगह दूधपथरी नामक स्थान देखना तय किया। वहाँ कम लोग जाते हैं। वहाँ बर्फ नहीं है लेकिन एक नदी की घाटी बहुत सुन्दर है। मैं उस दिन बहुत कमजोरी अनुभव कर रहा था, अतः टैक्सी में ही बैठा और सोता रहा। बाकी लोग घोड़ों पर घूम आये। फिर हम सब वापस श्रीनगर आ गये।
शाम को लौटकर हम दुर्गा नाग मंदिर के पास कृष्णा रेस्टोरेंट में भोजन करने गये, जो श्रीनगर का सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय शाकाहारी होटल है। उस दिन वहाँ बहुत भीड़ थी। लगभग आधा घंटा प्रतीक्षा करने के बाद हमें बैठने की सीटें मिलीं। खाना बहुत अच्छा था, हालांकि तबियत ढीली रहने के कारण मैंने कम ही खाया था।
14 जुलाई को हमारी यात्रा का समापन और वापसी उड़ान थी। उस दिन होटल का हिसाब करके नाश्ता करने हम फिर कृष्णा रेस्टोरेंट गये, लेकिन वहाँ इतनी भीड़ थी कि हमारे पास प्रतीक्षा करने का समय नहीं था। इसलिए पास के एक दूसरे होटल में जलपान किया। फिर वहाँ से हवाई अड़डे गये। सौभाग्य से हमारी उड़ान समय पर थी। अतः हम समय पर दिल्ली पहुँच गये और वहाँ से अपने घर आगरा।
कश्मीर में हमने यह अनुभव किया किया कि वहाँ के लोग यात्रियों को केवल ग्राहक समझते हैं और अधिक से अधिक लूटने की कोशिश करते हैं। शेष भारत के लोगों से उनको कोई लगाव नहीं है। हालांकि इस मानसिकता का अनुभव सरलता से नहीं होता, लेकिन सत्य यही है। वैसे कश्मीर में सड़कें अच्छी हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे भी अच्छे कपड़ों में दिखायी पड़ते हैं। स्कूल जाने वाली लड़कियों का पूरा चेहरा ढका रहता है, केवल आँखें खुली रहती हैं। वैसे कश्मीर में गरीबी भी है। पहाड़ों पर भीख माँगने वाले बच्चे भी मिल जाते हैं, जो कि प्रायः पूरे भारत में मिलते हैं।
कुल मिलाकर कश्मीर घाटी बहुत सुन्दर है और सही ही उसे भारत का स्विटजरलैंड कहा जाता है। हालांकि कई बार मैंने यह अनुभव भी किया कि हमारा हिमाचल प्रदेश भी कश्मीर से कम सुंदर नहीं है, बल्कि एक प्रकार से अधिक सुंदर ही होगा। उत्तराखंड के मसूरी और नैनीताल भी बहुत खूबसूरत हैं।
— डाॅ विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com