कविता

हम अपने मन के कैदी

मन की बात न सुनियो भैया यह तो बड़ा ही चंचल है,

इस के चक्कर में जो पड़ता वह पछताता हरदम है।

पंछी बनकर यह उड़ता रहता कहां ठहरता एक पल है,

इस पर अंकुश होता मुश्किल यह मदमस्त सा चलता है।

हम अपने मन के कैदी हैं ,भ्रम में भटकते रहते हैं,

विषय वासना में पड़कर अक्सर दुष्कर्म हम करते हैं।

भला बुरा हम समझ न पाते, इसकी लौ में जलते हैं,

पाप पुण्य को समझ न पाते, बस माया भोगा करते हैं।

चंचल मन की क्यारी को संयम के अमृत से सींचें हम,

ज्ञान का दीप प्रज्वलित करके इसका अंधेरा हर ले हम।

अंतःकरण के पिंजरे में लाकर, कैद इसे अब कर ले हम,

कल्याण स्वयं का करना है तो इस को वश में कर लें हम।

*कल्पना सिंह

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