कहानी

मेरा तिरंगा

मेरा तिरंगा  ——————–  ‘बाबू जी, बाबू जी, ये ले लीजिए तिरंगा’ टिमकी आते जाते लोगों को छोटे-छोटे तिरंगे झण्डे बेचने के लिए मेहनत कर रही थी। टिमकी की तरह और भी बहुत से बच्चे थे और साथ में उनके मां-बाप भी थे। क्यों न हों, 15 अगस्त को लोग इन्हीं तिरंगों को फहरा कर भारत के प्रति अपना सम्मान दर्शाते हैं। ‘कितने का है’ एक आंटी जी ने पूछा जिनके साथ चल रहा उस तिरंगे की खूबसूरती से आकर्षित होकर उसे लेना चाह रहा था। ‘आंटी, पांच रुपये का है’ टिमकी ने जवाब दिया। ‘पीछे तो दो रुपये का मिल रहा है, तू पांच रुपये का बेच रही है और वो भी अपने देश का तिरंगा’ आंटी ने कहा और थोड़े कदम आगे बढ़ा लिये क्योंकि वह पांच रुपये में भी मोल-भाव करना चाहती थीं।

टिमकी को मोल-भाव तो करना आता नहीं था पर वह साथ-साथ चल रही थी इसी उम्मीद में कि आंटी जी अपने बच्चे के लिए शायद पांच रुपये वाला तिरंगा ले लें। ‘दो रुपये में देगी’ आंटी जी ने चलते चलते पूछा। अब छोटी टिमकी को बारगेन का मतलब ही नहीं पता था तो वह बारगेन कैसे करती, उसके लिए यह पहला अनुभव था क्योंकि अब तक उसने चार-पांच तिरंगे झण्डे बेच दिये थे पांच रुपये के हिसाब से ही। टिमकी को जब उसके अपनों ने भावी ग्राहक के साथ जाते देखा तो उसे एक पल के लिए रोक कर सारी बात समझ ली और कुछ समझा दिया। आंटी जी धीरे-धीरे चल रही थीं।

इसी बात का फायदा उठा कर टिमकी भाग कर फिर उनके पास पहुंच कर बोली ‘आंटी, ले लो’ पर आंटी जी तो अड़ी हुई थीं ‘दो रुपये में दे दो।’ ‘आंटी, दो रुपये वाले खत्म हो गये हैं, थोड़ी देर में आयेंगे’ टिमकी को उसके अपनों ने पढ़ाकर भेजा था। ‘अच्छा कोई बात नहीं, मैं यहीं बाजार में हूं, जब दो रुपये वाला आयेगा तो ले लूंगी’ आंटी जी ने कहा। यह सुनकर टिमकी की उम्मीद के पांव थम गए थे और थोड़ी मायूसी सी छा गई थी। चारों ओर देख रहे उसके अपने उसके पास आ गए थे ‘क्या हुआ टिमकी, आंटी जी ने नहीं लिया।’ ‘नहीं, कह रही थीं कि जब दो रुपये वाला आयेगा तो ले लूंगी’ टिमकी ने जवाब दिया। ‘कोई बात नहीं, बाद में देख लेंगे, तू औरों को देख, गाड़ी वालों को बेच, बहुत सारे बिक जायेंगे’ उसके अपनों ने व्यापार का रहस्य बताया।

टिमकी पढ़ी-लिखी नहीं थी इसलिए उसके अपने उसे जैसा समझा रहे थे वह वही करती जाती थी। इतने में बाजार में एक बड़ी सी काली गाड़ी आकर रुकी जिस पर टिमकी की नजर भी पड़ी। टिमकी ने देखा उस पर पहले से ही तिरंगा झंडा लहरा रहा है। वह उस बड़ी सी गाड़ी को देख ही रही थी कि अपनों में से एक ने आकर उससे कहा ‘इस गाड़ी वालों को झंडा बेच।’ ‘पर वहां तो पहले ही लगा हुआ है’ टिमकी ने कहा। ‘अरी तू जानती नहीं है, इनके पास होंगे तो भी ये और ले लेंगे, तू जा, बात कर’ टिमकी को समझाया गया। टिमकी तो शब्दों की गुलाम थी। वह काली गाड़ी के पास गई और देखा कि गाड़ी में चार-पांच बहुत सुन्दर बच्चे भी बैठे थे।

‘अंकल, ये तिरंगे झंडे ले लो, पांच-पांच रुपये के हैं’ टिमकी ने कार में बैठे एक अंकल से कहा। ‘नहीं बेटे, नहीं चाहिएं’ अंकल ने कहा। टिमकी वापिस जाने ही वाली थी तो कार में बैठी आंटी ने कहा ‘सुनो बेटी, तुम्हारे पास कितने तिरंगे झंडे हैं।’ टिमकी को गिनना नहीं आ रहा था, उसके हाथ से तिरंगे झंडे इस हड़बड़ी में फिसलते जा रहे थे कि कहीं कार चली न जाये। उसे घबराता देख कार वाली आंटी बाहर निकल आईं और टिमकी के हाथ से झंडे लेकर गिने तो कुल बीस झंडे थे। ‘ये लो बेटा, सौ रुपये हैं, बीस झंडे हैं पांच रुपये के हिसाब से सौ रुपये हुए’ आंटी ने कहा और कार में बैठ गईं। ‘अरे तुम बीस झंडों का क्या करोगी’ अंकल ने कहा तो आंटी ने जवाब दिया ‘अजी मुझे पता है अभी स्कूल में जब प्रोजेक्ट बनवाये जायेंगे तो उसमें यही झंडे लगाने पड़ेंगे तब हमें दस-दस रुपये का झंडा मिलेगा’ ‘क्या दिमाग पाया है’ कहते हुए अंकल मुस्कुराए।

टिमकी ने सौ का नोट पकड़ा और अपनों के पास चली गई। ‘देखा, मैंने कहा था न तू कार वालों को ही बेच’ उसे फिर सलाह दी गई और अबकी बार उसे पचास झंडे पकड़ा दिये गये। ‘इतने सारे’ टिमकी ने बहुत मुश्किल से उन झंडों को संभालते हुए कहा। ‘अरे, तू आज चिन्ता मत कर, आज बहुत झंडे बिकेंगे, ये झंडे कल खूब लहरायेंगे’ अपनों ने कहा। ‘क्यों’ टिमकी का मासूम सवाल था। ‘अरे, कल पन्द्रह अगस्त है, सब तिरंगे झंडे लगाते हैं, आसमान में तिरंगी पतंगें उड़ती हैं’ अपनों ने कहा। ‘क्यों, हर रोज क्यों नहीं’ टिमकी ने फिर पूछा था। अपने एक दूसरे को देखने लगे थे ‘हां भई, रोज क्यों नहीं।’

अपनों में से एक बुजुर्ग भी था जिसने समझाया ‘बच्चो, पन्द्रह अगस्त को हमारा देश आजाद हुआ था, इसलिए तिरंगा झंडा फहराया जाता है। कल हमारे देश के राजा श्री नरेन्द्र मोदी जी लालकिले पर तिरंगा झंडा फहरायेंगे’ ‘अच्छा, हमारे राजा हैं वो’ टिमकी ने कहा तो एक बच्चे ने कहा ‘गलत है, राजा थोड़े ही न हैं वो, वो तो हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं।’ ‘तुम सब कहते हो कि पन्द्रह अगस्त को तिरंगा इसलिए फहराया जाता है कि इस दिन हमको आजादी मिली थी’ टिमकी ने कहा। ‘हां, बिल्कुल’ सबने कहा। ‘तो बाकी दिनों में इसलिए नहीं फहराते होंगे कि उन दिनों में हम आजाद नहीं थे’ टिमकी ने कहा तो सब सिर खुजाने लगे। ‘ऐसा हुआ होगा?’ कोई बोला। ‘भई आजादी वाले दिन ही तो तिरंगा फहराते हैं और वो दिन है पन्द्रह अगस्त, अब पन्द्रह अगस्त रोज रोज थोड़ी आती है, तुम सब बुद्धू हो, इतना भी नहीं जानते’ टिमकी ने कहा तो सभी सोच में पड़ गये थे।

‘चलो, चलो, काम पर चलो, बाकी बातें बाद में करेंगे’ एक ने कहा और बाकी सभी तिरंगे झंडे बेचने निकल पड़े। ‘आजादी वाला दिन तो बहुत बढ़िया है, इस दिन तिरंगे झंडे बेचने से काफी पैसे मिल जाते हैं’ टिमकी ने अपने साथी से कहा। ‘हां, ठीक तो है’ उसके साथी ने कहा। दोनों अपने हाथों में तिरंगे झण्डे लेकर चल रहे थे और उनकी आंखें ग्राहकों को खोज रही थीं। ‘क्या हमारे देश में सब आजाद नहीं हुए थे?’ टिमकी ने पूछा। ‘मतलब’ साथी ने कहा। ‘मतलब जो आजाद हैं सिर्फ वही तिरंगा झंडा फहराते हैं’ टिमकी ने कहा। ‘कहती तो तू सही है, जो जो तिरंगे झंडे ले रहे हैं, वो ही आजाद हैं, बाकी अभी आजाद होने होंगे’ साथी ने कहा। ‘फिर जितने लोग बच गए हैं वो अलग-अलग दिनों पर आजाद हो जायें तो पन्द्रह अगस्त जैसे और भी कई दिन हो जायेंगे और हम तिरंगे झंडे बेच कर कमाई कर सकेंगे’ टिमकी ने कहा। ‘ये बात भी सही है’ साथी ने कहा। इस बात पर दोनों खुश हुए थे। चलते-चलते दोनों के हाथ में लिए तिरंगे झंडे बिकते जा रहे थे और उनका बोझ कम हो रहा था।

‘हाथों में झंडे उठाए उठाए हाथ ही थक जाते हैं, तिरंगों को लहराते हुए चलना पड़ता है, कहते हैं इन्हें लटके हुए हाथों से नहीं संभालते’ साथी ने कहा तो टिमकी ने थक चुके हाथों को दोबारा मुस्तैद पोजीशन में कर दिया। ‘ये लो अब ठीक है’ टिमकी ने कहा तो साथी खुश हो गया। ‘थोड़ी देर कहीं बैठ जायें’ टिमकी ने कहा तो साथी बोला ‘अभी मेहनत करने का टाइम है, बैठ गये तो ये तिरंगे झंडे कैसे बिकेंगे, लोगों के पास जाना पड़ता है, लोग हमारे पास नहीं आने वाले, कोई हमारी दुकान थोड़े ही है जो लोग आयें।’ ‘ठीक है, चल पहले वहां प्याऊ पर पानी पी लें, वो तो पी सकते हैं न’ टिमकी ने कहा तो साथी उसके साथ बिना बोले चल पड़ा। पानी पीकर दोनों ने थकान मिटाई क्योंकि उन्हें प्यास नहीं लगी थी पर पानी पीने से थकान जरूर कम हो गई थी। बाजार में अनेक खोमचे वाले खड़े थे। खाने-पीने की चीजों की खुशबू सबका ध्यान अपनी ओर खींच रही थीं। कहीं गोल-गप्पे, कहीं चाट-पापड़ी तो कहीं आइसक्रीम की रेहड़ी। सभी पर तिरंगा लहरा रहा था। अभी-अभी एक छाबे वाला अंकुरित मूंग बेचने के लिए बाजार में आया था।

‘चल उसके पास चलें, उसके छाबे पर तिरंगा झंडा नहीं है’ टिमकी के साथी ने कहा। ‘चल’ कहा टिमकी ने और दोनों उसके पास जा पहुंचे। ‘भइया, तुम आजाद हो’ टिमकी ने कहा। ‘नहीं बच्चो, मैं तो दीनानाथ हूं’ छाबे वाले ने जवाब दिया। ‘नहीं आपका नाम नहीं पूछ रहे, आप आजाद हो, जैसे पन्द्रह अगस्त को भारत आजाद हुआ था’ दोनों ने कहा। ‘अच्छा तो यह जानना चाहते हो, तो सुनो बच्चो, जब पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को हमारा देश आजाद हुआ था तो हम सभी देशवासी भी आजाद हो गये थे। मैं भी आजाद हूं, तुम भी आजाद हो’ दीनानाथ ने कहा। ‘और जो आजाद हैं वो पन्द्रह अगस्त को तिरंगा झंडा फहराते हैं’ टिमकी ने पूछा। ‘सही बात है’ दीनानाथ ने कहा। ‘तो सबके हाथ में तिरंगा झंडा क्यों नहीं है, तुम्हारे छाबे पर भी नहीं’ टिमकी ने कहा। ‘बच्चो, तुम बेशक मेरे छाबे पर तिरंगा झंडा लगा दो पर मैं पैसों के बदले में तुम्हें मूंग खिला सकता हूं’ दीनानाथ ने कहा। ‘ठीक है … नहीं, नहीं, नहीं, रुको’ टिमकी ने कहा। ‘क्या हुआ’ दीनानाथ ने पूछा तो जवाब मिला ‘हमें झंडे बेचकर पैसे देने होते हैं, हम तुम्हें झंडा देकर बदले में मूंग नहीं खा सकते।’

बच्चों की मासूमियत से दीनानाथ पिघल गया था, उसने एक झंडा लिया और पांच रुपये देने के साथ-साथ दोनों बच्चों को एक-एक दोने में थोड़े-थोड़े मूंग डालकर दे दिये और पैसे नहीं लिये। बच्चों ने मूंग खा लिये और दीनानाथ को देखकर मुस्कुराए तो दीनानाथ को जैसे पैसे वसूल हो गये।

‘छुटकी, दस झण्डे देना’ काॅलेज के कुछ छात्र-छात्राएं उसके पास आ खड़े हुए थे। एक छात्र ने सौ रुपये का नोट दिया ‘छुटकी इसमें से पैसे ले लो, बाकी दे दो।’ ‘कितने बाकी दूं’ टिमकी को दस झंडों का हिसाब करना नहीं आ रहा था। ‘छुटकी, कुल पचास रुपये हुए’ एक छात्रा ने कहा। ‘बाकी कितने दूं’ टिमकी बोली। ‘छुटकी, पचास रुपये बाकी दे दो’ छात्रा ने कहा। छुटकी मूक सी खड़ी रही और सौ के नोट को देखती रही फिर उसने साथी की ओर देखा तो वह थोड़ी दूरी पर तिरंगे झंडे बेच रहा था। ‘कितने वापस दूं’ टिमकी ने दुबारा कहा तो छात्रा ने उससे सौ का नोट लेकर पचास का नोट दे दिया। ‘स्कूल जाती हो’ छात्रा ने फिर पूछा तो टिमकी ने न में सिर हिला दिया।

‘पढ़ना चाहती हो’ छात्रा ने पूछा तो ‘हम कैसे पढ़ सकते हैं’ जवाब दिया उसके साथी ने जो वहां पहुंच गया था। ‘क्यों, तुम क्यों नहीं पढ़ सकते’ छात्रा ने पूछा। ‘हमें कौन पढ़ायेगा, हम स्कूल नहीं जा सकते’ दोनों ने कहा। काॅलेज के छात्र आजाद भारत की यह तस्वीर देखकर द्रवित हुए और उन्होंने कहा ‘बच्चो, तुम लोगों को हम पढ़ायेंगे और स्कूल में भी भेजेंगे, कहां हैं तुम्हारे माता-पिता’ छात्र-छात्राओं के दल ने कहा तो दोनों उन्हें अपने माता-पिता के पास ले गये। वहां दल ने उन्हें समझाया तो माता-पिता भी खुश हुए ‘आज सही आजादी मिली है, भारत के सामथ्र्यवान नौजवानों ने आजाद भारत का मतलब समझ लिया है और इसी तरह से बाकी भी करते रहे तो देश जल्दी ही आगे पढ़ेगा क्योंकि पढ़-लिख कर आगे बढ़ा जा सकता है।’ ‘एक मिनट’ कहती हुई अचानक टिमकी भाग कर गई उस आंटी के पास जो दो रुपये का झंडा मांग रही थीं। टिमकी ने उन्हें झंडा दे दिया और बिना पैसे वापिस चलने लगी तो आंटी ने कहा ‘दो रुपये तो लेती जाओ।’ ‘नहीं, आंटी जी, आज हम भी आजाद हो गये हैं, अब हम पढ़ेंगे, झंडे नहीं बेचेंगे’ कहती हुई टिमकी चली गई और आजाद देश की आंटी उसे देखती ही रह गईं।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: mudrakala@gmail.com