गीत/नवगीत

मधुगीति

उत्ताल ताल आकाश में आच्छादित है,
मधुर वायु अधर का स्पर्श लिये आई है;
अग्नि त्रिकोणीय आभा ले दीप्तिमान हुई है,
जल हर जलज की प्राण-प्रतिष्ठा में लगा है !

धरा पर सब उनके साये में धाये हैं,
अपने तन मन को आत्मयोग में डुबाये हैं;
बुद्धि की हर तरंग पै तरजे लरजे़ हैं,
ध्यान की हर सुर लहरी पै गाये हैं !

क्या वे आज यहाँ स्वयं आए हैं,
तन्त्र की तन्मयता में मन्त्र दिए हैं;
अपनी हृदय वीणा पर कोई राग लिये हैं,
सार्वभौमिक योग किये क्या वे दुलारे हैं !

सब विडम्बनाएँ क्या बिखर जाएँगी,
प्राणियों की यातनाएँ क्या लुप्त हो जावेंगी;
ज्ञान की गोदावरी क्या भक्ति भर देगी,
सरस्वती क्या विहँस कर बहेगी !

श्रंखलाएँ क्या टूट कर झट-पट सिमटेंगीं,
मानसिकताएँ क्या जीवों का पिण्ड छोड़ेंगी;
‘मधु’ के प्रभु क्या हर सुहृद अवतरित हैं,
क्या विश्व वेणु पर वे कोई और तान छेड़े हैं !

✍ गोपाल बघेल ‘मधु’