लघुकथा

अनजान डर

घंटी बजती है रम्या दौड़कर जाती है “अरे पोस्टमास्टर अंकल आप।”
“हाँ भई ख़ुशख़बरी है जल्दी से इनाम लाओ।” पोस्टमास्टर जी ख़ुश होते हुए बोलते हैं।
“अरे क्या हुआ? मैं भी तो देखूँ” माँ कहती हुई आती हैं।
“ये लो बहन जी बिटिया की नौकरी लग गई है। अब तो हवाई यात्रा करेगी रोज़।“
“ये लो आप भी मुँह मीठा कर लेना।” १०० ₹ पकड़ाते हुए ।
रम्या बड़ी ख़ुश होती है यह सुनकर पर माँ के चेहरे पर चिंताओं की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थी क्योंकि अभी भी यह काम करना सब घरों में पसंद नहीं किया ज़ाता है। माँ उसे उसी क्षण से हिदायतें देना शुरू कर देती है कि ऐसे करना और ऐसे नहीं करना!
बेटी का बालमन भी डगमगाने लगा कि जाये या ना जाये! कहीं एक कोने में एक अनजान डर ने दस्तखत दे दी थी। वह अपनेआप को आधुनिक मानते हुए भी पिंजरे में क़ैद महसूस कर रही थी। तभी पापा का आगमन होता है …..
“आज़ घर में कुछ हुआ है क्या? जो दोनों के चेहरे लटके हुए हैं।” चमन बोलते हैं ।
“हाँ बेटी का नियुक्ति पत्र विमान परिचारिका के लिये आया है कल ही जाना है।” पत्र पकड़ाते हुए ।
“अरे! यह तो ख़ुशी की बात है फिर भी मुँह लटका है हमारी लाडो का।”
मुँह पर बनावटी हँसी लाते हुए रम्या “पापा मुझे डर लग रहा है।”
“डर कैसा?” कल का भविष्य तुम से ही तो है हमारा। चलो डर निकालो और चलने की तैयारी करो। आज़ हर क्षेत्र में नारी ने अपना डंका बज़ा रखा है फिर मेरी बेटी पीछे कैसे रह सकती है?“
“तुम भी अपना डर निकालो।” चमन माँ से कहते हैं।
“दुनिया में बहुत से रावण हैं जिनसे बचना है बस यही समझा रही थी, मैं माँ जो ठहरी।” कहते–कहते रो पड़ती है।
तीनों मिलकर तैयारी में जुट जाते हैं ……

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक