कविता

पावस ऋतु

तपन भरी थी जेठ दोपहरी, हाँफ रहे नर पशु पक्षी |
झील सरोवर सूख रहे थे,प्यासी -प्यासी यह धरती |
लुप्त हो गई शीतल छाया ,पवन रोक बैठा साँसे |
अकुलाए सब जीव जहाँ के,राह तकें बादल आएं |
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तपन भरे इस जग को जब
आकर मेघों ने घेर लिया |
पावस का स्वागत करने को,मानव मन का घट फूट गया |
चमकी दामिनी की एक लहर,एक ज्योतिपुंज सा फैल गया|
बहुरंगी आभा से मानो वर्षा ऋतु ने श्रृंगार किया |
ओ पावस जब तुम आती हो,तब मन मयूर नर्तन करता |
घनघोर गरजता बादल जब ,तब अंतर्मन मेरा डरता |
टप-तप माथे पर बूंद पड़ी, कर दिया मुझे नम मेघों ने |
हर्षित पुलकित मन डोल उठा,पग लगे थिरकने मोरों से |
भर जाते ताल तलैया सब,नाले भी नदियाँ लगते हैं|
कागज़ की नाँव बनाकर तब नन्हे मुन्ने तैराते है |
हरियाली से परिपूर्ण धरा ,नव वधू सरीखी सज जाती |
मेरा भी तन-मन हर्षाता,मैं भी इठलाती इतराती |
पल पल रूप बदलती धरती ,पावस की महिमा ऐसी |
बादल की कजरीली छइयां, कहीं सुनहरी धूप खिली |
पावस ऋतु की पहली बारिश ,जल भर कर ज्यों-ज्यों बरसी |
वह पहली बौछार धरा ने ,सारी की सारी सोखी |
सौंधी सौंधी गंध मटीली ,धरा रोम से फूट पड़ी |
मादक सी वह गंध निराली ,पुरवाई में बिखर गई |
वर्षा ऋतु का आकर्षण ,मन को आकर्षित करता है |
बारिश में जी भर मैं भीगूँ मन में भाव उमड़ता है |
सुखद सलोना सा बचपन ,पावस तुम याद दिलाती तब|
में बचपन में खो जाती , कागज़ की नाँव बनाती तब |
ओ पावस तेरी महिमा ,हर दिल में
लगन लगाती तुम |
तपी धरा की प्यास बुझाती ,जीवन ज्योति जलाती तुम |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016