सामाजिक

स्वार्थी मानसिकता

जैसा कि हम सभी जानते है पढ़ने से व्यक्ति की आलोचनात्मक चेतना  विकसित होती है, जिससे वह निजी और सामाजिक स्तर पर परिवर्तनकारी काम कर सकता है।अफसोस तब होता है जब लोग पढ़ने की प्रक्रिया को सिर्फ किताबी ज्ञान तक ही सीमित रखते हैं, एक रूढ़िवादी सोच के साथ वो अपना कार्य करते हैं जबकि किताबी ज्ञान को विकसित कर दूसरों को प्रेरित करने का विचार वाली मानसिकता का विस्तार करना आवश्यक है।आज के इस भागदौड वाली जीवन में ऐसी मानसिकता का आकाल पड़ गया है।अगर भूल से कभी किसी मुहल्ले में किसी का एड्रेस पूछ बैठो तो लगता है जैसे कोई गूनाह कर दिया।ऐसी सोच पहले क्यूँ नहीं थी आज क्यो?दरअसल आज स्नेह का अभाव और स्वार्थ ही स्वार्थ वाली मानसिकता लोगो के अन्दर आ गयी है।
पतझड़ में घर के बाहर जमा हुए पत्तों को जलाने से पहले हम उसके प्रभाव के बारे में सोचें। जब हम मंदसौर जैसी जगहों से किसानों की आत्महत्या की बात सुनें, तो उसे दूरदराज के गरीब लोगों की परेशानी समझ कर सिर्फ हमदर्दी महसूस करके न भूल जाएं, बल्कि यह विश्लेषण करें कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की इस दुर्दशा का निवारण कैसे हो या फिर जब हम टीवी चैनलों पर कहीं सांप्रदायिक दंगों की ‘ब्रेकिंग न्यूज’ सुनें तो सिर्फ फेसबुक या ट्विटर पर विचारहीन रोष व्यक्त करके न रह जाएं, बल्कि व्यवस्था से जुड़ी सभी जिम्मेदार कड़ियों को पहचान सकें, उनकी भूमिका पर गहराई से चिंतन कर पाएं और एक लोकतांत्रिक सरकार से उसके उत्तरदायित्व को लेकर प्रश्न कर पाएं।
हालत इतनी खराब हो चुकी है कि किसी का एक्सीडेंट भी हो जाय तो लोग पहले भीडिओ बनाने लगते बजाय इसके कि उस व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाना भी जरूरी नही समझते आखिर क्यो? क्या सिर्फ अपना काम अपना परिवार और अपने बच्चे तक ही सीमित होती मानसिकता से कब निजात मिलेगी।ऐसे माहौल से समाज और राष्ट्र का कैसे कल्याण हो सकता है जब ऐसी एकल प्रवृत्ति के लोग समाज में फैलते जा रहे हैं भीड तंत्र सिर्फ तमाशवीन की तरह जख्मो पर नमक छिडकने के अलावा कुछ नही कर पातीऔर पीडित व्यक्ति और पीडित हो जाता ऐसी मानसिकता देखकर।

आशुतोष झा

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