कविता

स्मृति शेष

******* स्मृति शेष *******

घावसमय के निठुर बड़े , रिसते हैं प्रतिपल हन कर
स्मृति -शेष प्रियवर के अब , ढलते हैं दृग -जल बन कर

वो गर्म बिछौने सी बांहें , शीत सकल हर लेती थी
सो उष्ण वक्ष की शय्या पर , उर मातल कर लेती थी
वो आंच हृदय -स्पंदन की , तन में उष्मा भर देती थी
मैं उन रागों अनुरागों में , मन को सुष्मा कर देती थी

अब वही मदन के मोद जोग , छलते हैं उर तल तन कर
स्मृति – शेष प्रियवर के अब , ढलते हैं दृग – जल बन कर

मेरे मन की मरुभूमि पर , तुम श्याम घटा बन छाए थे
निर्मम बुंदों की ओट कभी‌, तेरे सघन प्रेम के साए थे
सावन से सजते रुत को लग, जाने किसकी नजर गइ
गिरी दामिनी इक ऐसी , सारी बगिया ही बिखर गइ

जो जीवन के अवलंब रहे , अब हैं मन में कल बन कर
स्मृति -शेष प्रियवर के अब , ढलते हैं दृग – जल बन कर

समर नाथ मिश्र
रायपुर