सामाजिक

नारी सशक्तिकरण (भारतीय सन्दर्भ)

नारी सशक्तिकरण की पहचान हो कैसे, यह हमको बतला डालो,
क्या मानक, कौन पैमाना- कौन तराजू, इसको भी समझा डालो|
क्या अर्धनग्न घूमना- उन्मुक्त जीवन ही, सशक्तिकरण कहलाता है,
आर्थिक निर्भरता- संस्कारों से मुक्ति, सशक्तिकरण बन जाता है?
जी हाँ, वर्तमान दौर मे यह स्पष्ट करना कठिन होता जा रहा है कि नारी सशक्तिकरण के नाम पर क्या चाहती है? भारतीय संस्कृति में नारी सदैव ही अग्रणी व पूजनीय रही है| शास्त्रानुसार भारतीय संस्कृति में नारी मात्र भोग्या अथवा पुरूष की अर्धांगिनी नही मानी गयी अपितु प्रेरक रही है| जब भी धर्म, समाज या परिवार पर कोई संकट आन पडा तब नारी ने ही दुर्गा, काली चामुण्डा का रूप धारण किया है| शास्त्रों में कहा गया है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता|
अर्थात् नारी को केवल बहन, बेटी, पत्नी नही अपितु देवत्व का प्रतीक माना गया| नारी होने का अर्थ है माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी, संस्कारों की संरक्षिका, प्रचारक, पोषक, ममतामयी, शिक्षक, प्रेरणा स्रोत या कहें कि जो भी सृष्टि में सम्भव है वह सब| फिर इतनी सशक्त नारी को किस सशक्तिकरण की जरूरत है? यह प्रश्न आज समाज के सम्मुख खडा है|
आदिकाल से वर्तमान तक नारी सदैव प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी रही है| सृष्टि के सर्वप्रथम ग्रन्थों में नारी की महत्ता का वर्णन एवं उच्च स्थान प्रदान किया गया है| वेदो में नारी को घर की साम्राज्ञी कहा गया है| साथ ही देश की शासक व पृथ्वी की साम्राज्ञी बनने का अधिकार भी दिया गया है| नारी को ज्ञान, सुख देने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा कहकर भी सम्बोधित किया गया है| त्रेतायुग में कैकेयी जैसी विदुषी व विरांगना की चर्चा आती है जो युद्ध में महाराज दशरथ का साथ देती है| शिक्षा और ज्ञान की बात करें तो अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, आदिति- दाक्षायिनी, लोपामुद्रा, विश्र्ववारा, आत्रेयी आदि अनेकोनेक विदुषियों के नाम वेदों की मंत्रों के दृष्टा के रूप आदिकाल से मौजूद हैं|
कालान्तर से वर्तमान तक प्रत्येक क्षेत्र में नारी अग्रणी रही है| ज्ञान से विज्ञान तक, घर से रणक्षेत्र, जमीन से आसमान, पाताल से अन्तरिक्ष तक नारी का साम्राज्य आज भी है|
पढ लिख कर बेटी आगे बढी है,
सत्ता के शीर्ष तक बेटी चढी है|
इस जमीं की बात क्या करें हम,
आज बेटी गगन से आगे बढी है|
पुनः मूल प्रश्न पर आते हैं कि नारी सशक्तिकरण का अर्थ क्या है? आज की पढी लिखी नारी अपने को असुरक्षित व अस्तित्वहीन क्यों मानती है? आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि नारी सशक्तिकरण का नारा केवल वह महिलायें ही लगा रही हैं जो आर्थिक समृद्ध, उच्च शिक्षित व आधुनिक जीवन शैली का पालन करती हैं| जिनकी इस स्वतंत्रता के लिए अनेक गरीब महिलाओ को उनके घरो में अपनी स्वतंत्रता की कुर्बानी देनी पडती है| अक्सर यह भी देखने मे आता है कि नारी अस्तित्व पर संकट, नारी मुक्ति, महिला की निजी पहचान या महिला सशक्तिकरण पर गोष्ठियों का आयोजन बडे बडे होटलों, सार्वजनिक सुसज्जित मंचों, अखबार, टीवी, रेडियो, पत्रिकाओं मे किया जाता है और उसमें प्रतिभागी भी उच्च व सामाजिक प्रतिष्ठित महिलायें ही अधिक रहती हैं|| बडी अजीब विडम्बना यह भी है कि ये महिलायें भारतीय समाज के संयुक्त परिवार ढांचे, संस्कारों युक्त जीवन शैली पर तो चर्चा करती ही नही अपितु गरीब परिवारो की जीवन शैली में आपसी प्रेम, सहयोग को भी नकार कर सामाजिक ताने बाने को तोडकरगरीब महिलाओं को अपने पैसे अलग जोडने को सशक्तिकरण बताकर परिवार में विभेद का मार्ग समझाती हैं|
समाज का अध्यन करने पर पता चलता है कि जिन घरो मे गरीबी के बावजूद सुख दुख साथ सहते हुये भी संस्कारों को जीवित रखा गया है, वहाँ नारी सदैव सशक्त ही रही है|
जहाँ रूखी रोटी खाकर भी हंसता बचपन है,
परिवारजनों की सेवा कर सबका गौरव बढता है,
जहाँ सबके सुख- दुःख, एक दुजे के साझे होते हैं,
जहाँ भूखे रहकर भी, संस्कार संस्कृति को ढोते हैं,
वहाँ नारी सदैव सुखी और सशक्त रहा करती है,
गरीबी में भी निज परिवार की, धुरी बना करती है|
घर-परिवार, समाज को चलाने के लिये कुछ नियम बनाये जाते हैं| कुछ नियम व्यवस्था प्रकृति प्रदत्त होती है| जब नियमों का पालन किया जाता है तब समाज सशक्त बनता है वर्ना अराजकता व्याप्त होती है| जिस समाज के दायित्वों का निर्वहण किया जाता है वहाँ नारी का भी सम्मान होता है|प्रकृति ने पुरूष की तुलना में नारी को कोमलांगी, ममतामयी मगर दृढ इच्छा शक्ति वाला बनाया है| मातृत्व गुण नारी को सशक्त व समर्थ बनाता है| आज महिला सशक्तिकरण की पक्षधर महिलाओं में ईश्वर प्रदत्त इस गुण को नकारने या चुनौती देने का प्रचलन बढ रहा है| संयुक्त परिवारो से बगावत करने की बयार बह रही है| नौकरी करने और निष्छन्द घूमने की आजादी को सशक्तिकरण बताया जा रहा है| उन्मुक्त जीवन शैली, शराब, सिगरेट, नशा व मुक्त यौन सम्बन्धों की हिमायत सशक्तिकरण का पैमाना बताया जाने लगा| पैसे के सम्मुख परिवार का अस्तित्व गौण होता जा रहा है| धन और शोहरत की चाह ने वर्तमान नारी को उपभोक्ता वस्तु बना डाला है और जब आप वस्तु बन गये तब आपके अस्तित्व का सवाल कैसा?
पुनः सशक्तिकरण की बात करते हैं, क्या लक्ष्मी, दुर्गा, काली, पार्वती, सीता, राधा, सावित्री आदि देवतुल्य, गार्गी, मैत्रेयी, अदिति, जैसी विदुषी महिलायें सशक्त नही कही जायेंगी जिन्होने शास्त्र से शस्त्र, धर्म अध्यात्म सबमें अपनी प्रतिभा का डंका बजवाया? रानी चेनम्मा, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल, ऊदा देवी, सरोजनी नायडू, सावित्रीबाई फूले, वेद कुमारी, आज्ञावती, नेली सेन गुप्ता, नागरानी गुंदूदाल्यू, प्रीतिलता वाडेयर, कल्पना दत्त, शांति घोष, सुनीति चौधरी, बीना दास, सुहासिनी आची, दुर्गा देवी, इन्दिरा गाँधी, सुषमा स्वराज, पी टी उषा जैसी अनेकानेक महिलाओं के सशक्त अस्तित्व को नकारा जा सकता है| आज की नारी को सोचना होगा कि वह मात्र नदी बनकर सागर में समाकर अपना अस्तित्व मिटाना चाहती है, नग्नता, उन्मुक्त जीवन शैली, आर्थिक समृद्धि के नाम पर स्वयं को वस्तु बनाकर सशक्त होने का दंभ भरना चाहती है अथवा शास्त्रों के अनुसार संस्कारवान, सशक्त बने रहकर गंगा की तरह पवित्र, महान, समर्थ, शीतल, जीवनदायिनी, अपने गुणों विचारों से नश्वरता को भी मोक्ष देने वाली और अन्त में सागर को भी गंगा सागर बनाने वाली बनना चाहती है| यही तो सशक्तिकरण है|
सशक्तिकरण के लिये महिलाओं के मापदंड क्या हैं इस पर भी विचार करें| सामाजिक अध्यन से पता चलता है कि मातृत्व से मुक्ति की चाह, स्वतंत्र उन्मुक्त जीवन शैली