धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ऋषि दयानन्द सदैव अमर रहेंगे

ओ३म्

मनुष्य जीवन की प्रमुख आवश्यकताओं में शरीर का पालन व पोषण हैं। शरीर का पालन तो माता-पिता आदि परिवारजनों द्वारा मिलकर किया जाता हैं और पोषण माता-पिता आदि करते हैं और युवा  होने व किसी व्यवसाय को करने पर मनुष्य व्यं धन अर्जित कर अपना और अपने परिवार का पोषण करता है। हमने अपने माता-पिता को देखा है। अब वह इस संसार में नहीं हैं। उनकी वर्षों पूर्व मृत्यु हो चुकी है। अपने पितामह और पितामही को हमने देखा नहीं क्योंकि हमारे जन्म से पूर्व हमारे पिता के बाल्यकाल व युवावस्था में, हमरे जन्म से पूर्व, वह दिवंगत हो चुके थे। इन सब लोगों में से कोई भी अमर नहीं है यद्यपि इन सबकी आत्मायें अमर हैं और कहीं न कहीं किसी योनि में अपने कर्मानुसार जन्म लेकर जीवनयापन कर रहीं है। संसार में कोई भी मनुष्य अपने परहित, देशहित, समाजहित, मानवता के हित सहित धर्म व संस्कृति की उन्नति के कार्यों को करके अमर व स्मरणीय होता है। राम, कृष्ण, ऋषि दयानन्द आदि ने परहित देशहित सहित धर्म संस्कृति के हित के कार्यों को किया था, अतः वह देश-देशान्तर में आज भी याद किये जाते हैं। हम अपने पूर्वज माता-पिता आदि को यदा-कदा उनका किसी प्रसंग में स्मरण आने पर ही उनके उपकारों को याद करते हैं और कुछ देर बाद व्यस्त होकर भूल जाते हैं। संसार में वह महापुरुष ही अमर होते हैं जो अपने देशवासी मनुष्यों के जीवन की किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता को उन्हें प्रदान करते व कराते हैं जिससे समकालीन सन्तति सहित भावी पीढ़ियां भी निरन्तर लाभान्वित होती रहती हैं।

ऐसी ही एक वस्तु है जिसे धर्म कहते हैं। महर्षि दयानन्द ने हमारा हमसे परिचय कराने के साथ हमें हमारे सद्धर्म से भी परिचित कराया है। इससे पूर्व हमें अपना पूरा-पूरा परिचय विदित नहीं था। हम कौन हैं व थे, कहां से इस संसार में आते हैं, क्यों आते हैं, हमें कहा जाना हैं, हमारा लक्ष्य क्या है, लक्ष्य की प्राप्ति के उपाय क्या हैं, हम अपना आदर्श किसे बनायें आदि, ऐसे अनेक प्रश्न थे जिनका उत्तर तत्कालीन व पूर्ववर्ती लोगों को नहीं था। सद्धर्म अर्थात् मनुष्य के सत्य व श्रेष्ठ कर्तव्यों का सम्बन्ध न केवल व्यक्तियों के व्यक्तिगत कर्तव्य होते हैं अपितु इनका सम्बन्ध संसार के सभी मनुष्यों से है और प्रलय की अवस्था तक जितने भी मनुष्य उत्पन्न होंगे, उन सभी से रहेगा। सद्धर्म से हमें सुख मिलता है। यह सुख इस जन्म में भी मिलता है और मरने के बाद पुनर्जन्म होने तथा बाद के जन्मों तक मिलता जाता है। इस कारण से धर्म का महत्व है। महाभारत युद्ध के बाद देश व विश्व के सभी लोग यथार्थ सत्य धर्म को भूल चुके थे। इसके स्थान पर मत-पन्थ व सम्प्रदाय प्रचलित हो गये थे जो अविद्या व अन्धविश्वासों सहित मिथ्या परम्पराओं से भरे थे जिनसे मनुष्य का जीवन सुख से दूर व दुःखों से भर गया था। सद्धर्म की अनुपस्थिति में मनुष्य का परजन्म भी बिगड़ गया था जिसका कारण था कि इस जन्म में वह धर्म, अर्थ व काम व उसकी प्राप्ति के पवित्र साधनों से अपरिचित होकर धर्म के विरुद्ध कर्म करता था। ऋषि दयानन्द ने न केवल हमें हमारे धर्म व कर्तव्यों से ही परिचित कराया अपितु धर्म से होने वाले लाभों के विषय में भी बताया। धर्म से लाभ किस प्रकार होते हैं, इसका ज्ञान हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर होता है। महर्षि दयानन्द की वेद से सम्बन्धित शिक्षायें मनुष्य को अज्ञान व अविद्या से हटाकर उसे वेदमार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है जो उसे जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष को प्राप्त कराता है।

हमने ऋषि के जीवन पर विचार किया और पाया कि ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में मनुष्य जीवन की सर्वांगीण उन्नति के जो कार्य तप किया है और जो सद्ज्ञान सद्-मार्गदर्शन देश-देशान्तर के लोगों का उन्होंने अपने ग्रन्थों उपदेशों के माध्यम से किया है, वह उन्हें प्रलय की अवस्था आने तक अमर प्रसिद्ध रखेगा। आज के समाज की एक विडम्बना यह अनुभव होती है कि यह महापुरुषों का मूल्यांकन उनके ज्ञान व सत्यासत्य के आचरण सहित उनकी शिक्षाओं आदि के आधार पर नहीं करते अपितु सब बिना विचारे व सोचे समझे अपने-अपने मत व पन्थ के आचार्य व आचार्यों की बतायी गई किन्हीं बातों का ही आचरण करते हैं। उन्हें अपने मत के अतिरिक्त अन्य विद्वानों व महात्माओं की बातों व सन्देशों से कोई लेना-देना नहीं होता। देश व विश्व में अनेक मत-मतान्तर हैं जो अपने मत को अच्छा मानते हैं और दूसरों के मत को अपने मत से छोटा, अनुपयुक्त, अप्रांसगिक व अप्रशस्त मानते हैं। वह तुलनात्मक अध्ययन कर यह पता नहीं लगाते कि मनुष्य के लिये आवश्यक ज्ञान का वास्तविक आदि स्रोत कहां हैं और सृष्टि के आरम्भ में सत्य-ज्ञान कहां से किस प्रकार मनुष्यों को प्राप्त हुआ था? यदि वह पता लगाते तो उन्हें यह ज्ञात हो जाता है कि ईश्वर द्वारा सृष्टि केआरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया गया ज्ञान चार वेद ही सच्चे ज्ञान के आदि स्रोत है। इस वेदज्ञान में कोई मनुष्य व आचार्य किसी प्रकार की वृद्धि नहीं कर सकता। सब अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार उनकी सत्य व असत्य व्याख्यायें तो कर सकते हैं परन्तु उसमें किसी सत्य मान्यता की वृद्धि कोई नहीं कर सकता। ईश्वर के ज्ञान वेद का सत्यस्वरूप व सत्य व्याख्यायें ही मनुष्य का धर्म हुआ करती हैं। यह व्याख्या भी सभी मनुष्य नहीं कर सकते।

वेदों की व्याख्या व वेदों के सत्य अर्थ जानने व प्रचार करने के लिये योग्य गुरु से विद्यार्जन करने के साथ अपने जीवन को ऋषि-मुनि विद्वानों की संगति कर योगाभ्यास द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। ईश्वर साक्षात्कार कर ही मनुष्य में सत्य के प्रचार और असत्य के खण्डन की शक्ति उत्पन्न होती है जिससे मनुष्य, समाज देश का कल्याण होता है। यही कार्य महर्षि दयानन्द ने किया है। महर्षि दयानन्द ने अपना पूरा जीवन और यहां तक की अपनी अन्तिम श्वास भी देश, धर्म, संस्कृति, परहित समाज हित सहित समाज सुधार के लिये अर्पित की है। उन्होंने समाज हित समाज सुधार के जो कार्य किये, उसमें उनका अपना निजी लाभ का कुछ प्रयोजन था। वह महापुरुष बनने अपनी पूजा कराने के लिये ऐसा नहीं कर रहे थे अपितु वह संसार के सभी लोगों को ईश्वर का सच्चा परिचय देकर उसका भक्त बनाकर उन्हें ईश्वर सहित आत्मा का साक्षात्कार कराना चाहते थे। इस कार्य में वह आंशिक रूप से ही सफल हो पाये। विज्ञान जगत में कोई वैज्ञानिक यदि कोई आविष्कार करता है तो उसे अपने उस आविष्कार का जन-जन में जाकर प्रचार नहीं करना पड़ता। उसके आविष्कार व कार्य को सभी देश-देशान्तर के लोग पुस्तकों में पढ़कर व उसके व्याख्यानों को सुनकर अपना लेते हैं। इसके विपरीत सत्य धर्म के प्रचार में अनेक बाधायें हैं। प्रचलित अविद्यायुक्त मत-मतान्तर के लोग किसी सच्चे वैदिक धर्म प्रचारक की सच्ची बातों का भी विरोध करते हैं और अपनी कुछ वर्ष पुरानी परम्पराओं की सत्यता की परीक्षा करने के लिये भी सहमत नहीं होते। इसका परिणाम यह होता है कि मत-मतान्तरवादी लोग सच्चे महात्माओं द्वारा प्रचारित सत्य ज्ञान से तो वंचित होते ही हैं, इसके साथ वह भावी पीढ़ियों को भी उससे वंचित कर देते हैं। इसी कारण से वेदों का जितना प्रचार व प्रसार विश्व में होना चाहिये था वह नहीं हो सका है।

एक पक्ष यह भी सामने आता है कि सत्य धर्म का प्रचार ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में किया था। वही संसार का स्वामी व अधिष्ठाता है। वह लोगों के हृदय व आत्माओं के भीतर भी विराजमान है। वह यदि उन सबको प्रेरणा कर दे तो सभी उसको स्वीकार कर सकते हैं। इसका भी हमारे ऋषियों ने अध्ययन विवेचन किया है और बताया है कि जिस मनुष्य का मन कुवासनाओं अविद्या आदि दोषों से युक्त होता है, वहां ईश्वर की प्रेरणा होने पर भी उसका आत्मा पर प्रभाव नहीं होता। यह ऐसा ही है कि जैसा कि किसी दर्पण पर धूल मिट्टी जमी हो तो उसमें हमें अपना चेहरा दिखाई नहीं देता। अपना चेहरा देखने के लिए धूल मिट्टी को साफ करना होता है। इसी प्रकार से हमें अपने मन, हृदय व आत्मा को शुद्ध व पवित्र बनाना होगा तभी हम ईश्वर की प्रेरणाओं को ग्रहण कर सकेंगे। इस कार्य के लिये ही धर्माचरण अथवा योगाभ्यास आदि करना होता है। ऋषि दयानन्द ने योग को अपने जीवन में चरितार्थ किया था। वह आसन में बैठकर प्राणायाम आरम्भ करते थे और कुछ ही क्षणों में उनकी समाधि लग लाती थी और उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता था। यही कारण था कि उन्होंने उस लाभ को देश विश्व की समस्त जनता तक पहुंचाने के लिये वेद प्रचार यज्ञ अनुष्ठान को अपनाया था। आज उनके न होने पर भी उनका रचा गया साहित्य सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थ देश देशान्तर के लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। इन ग्रन्थों ने ही हमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं0 गणपति शर्मा, महाशय राजपाल, पं0 रामप्रसाद बिस्मिल, डा0 रामनाथ वेदालंकार आदि विद्वान व देशभक्त विद्वान दिये हैं जिन्होंने वेदों के सन्देश को सर्वत्र प्रसारित व बढ़ाने का कार्य किया है।

महर्षि दयानन्द जी ने जो साहित्य हमें दिया है उससे एक आदर्श मनुष्य का निर्माण करना सम्भव है। इसके क्रियान्वयन से राम, कृष्ण, महात्मा भरत, महात्मा युधिष्ठिर, विदुर, कर्ण, गुरु वशिष्ठ, गुरु विश्वामित्र आदि हमें बहुतायत में प्राप्त हो सकते हैं। आवश्यकता केवल ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने, उसे समझने व उसका मन-वचन-कर्म से आचरण करने की है। आदर्श गुरुओं से पढ़कर और वेदाचरण कर ही राम कृष्ण महापुरुष बने थे। ऋषि दयानन्द का निर्माण भी आदर्श गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती उनके योग के गुरुओं की शिक्षा से हुआ था। ऋषि दयानन्द का सम्पूर्ण मनुष्य जाति पर महान उपकार है। उन्होंने विलुप्त वैदिक ज्ञान जिसमें दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं, उनको उपलब्ध कराया और हमें वह कसौटी दी जिससे हम सत्य और असत्य के भेद को जान सकते हैं और सत्यासत्य में से सत्य और असत्य को पृथक कर सकते हैं। हम आशा करते हैं कि ऋषि दयानन्द ने जो महान कार्य किये हैं उसके कारण वह इस सृष्टि की प्रलय अवस्था तक अमर रहेंगे अर्थात् उनका यश व कीर्ति चिरस्थाई होंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य