धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

श्राद्ध पक्ष में परमात्मा की विज्ञानसम्मत आध्यात्मिक चेतावनी

पुत्रो/बहुओ/पुत्रियो/दामादो !
मैंने सोचा कि यह जो मनोहर भण्डारी नाम का प्राणी है, इसकी कलम में प्रवेश कर तुम सभी पारिवारिक पात्रों और दुनिया के तमाम रिश्तों-अरिश्तों से जाने जाने वाले लोगों को श्राद्ध पक्ष में कुछ चेतावनियाँ दे ही दूं. क्योंकि तुम सब लोग इस भ्रान्त धारणा में जी रहे हो कि तुम्हारी निरंकुशता का पता किसी को नहीं चल रहा है, अपने ही माता-पिता, सास-ससुर के विरुद्ध बड़े ही घिनौने षड्यंत्रों के विषय में कोई जान नहीं पायेगा.
अस्तु, अपने मां-बाप और सास-ससुर को तुम लोगों ने कितना दुःख दिया, कितनी पीड़ा दी, कितना छल किया, उनका जीवन तुमने जीते-जी ही नारकीय बना डाला, इसका तनिक भी अनुमान है, तुम्हें.
अरे दुष्टो ! उनकी ममता, वात्सल्य, उपकार, प्रेम, निष्कपट अनुराग, समर्पित सरोकार, सब कुछ भुला बैठें. उनका दिन-रात तुम्हारे लिए खट जाना, मिट जाना, तुमको याद ही नहीं रहा.
जानते होंगे न, मैंने अपनी सौतेली माता की आज्ञा का श्रद्धा के साथ अक्षरशः पालन कर 14 साल वनवास स्वीकारा था, तुम अपनी जननी माता और जनक पिता की जरा-सी बात पर उबल पड़ते हो, उनके मन को भयावह और मर्मान्तक दुःख देने में तनिक भी विचार नहीं करते हो, तुमने कभी सोचा है कि जब तुम एक ही बात को दस-दस बार पूछते थे, तो वे प्यार के साथ तुम्हें बार-बार बिना क्रोधित हुए बताते थे, प्रतिसाद में तुमने क्या दिया है?
सोचो दुष्टो ! सोचो कृतघ्नो सोचो ! तुम उन मां-बाप को कहते हो कि हम बहुत टेंशन में हैं, बहुत व्यस्त हैं, इसलिए हमें डिस्टर्ब मत करो. उन मां-बाप ने तुम्हें अपने पेट और ह्रदय में नौ माह नहीं बल्कि आज तक बोझ की तरह नहीं बल्कि आनन्दित होकर धारण कर रखा है. तुमने मृत्यु से भी ज्यादा पीड़ा दी है, उनके कोमल और स्नेहल हृदयों को विदीर्ण किया है.
अरे कृतघ्नों सोचो ! मां-बाप या सास-ससुर को इससे ज्यादा मर्मान्तक वेदना क्या हो सकती है कि जिन्हें उन्होंने अपने प्राणों से ज्यादा चाहा, जिनको अपनी दुनिया में लाने के लिए सालोंसाल तक साधना की, सपने संजोयें, अपनी सारी ममता लूटा दी, अपना सारा अस्तित्व ही तुम्हारे अस्तित्व में निखार लाने में झोंक दिया, उन पर तुम जरा-जरा-सी बात में झल्लाते हुए अपमान की पराकाष्ठा को भी लांघ कर जाते हो तब भी वे यह सोचकर कि तुम किसी तनाव या उहापेह के चलते व्यथित हो, दुखी हो, वे तुम्हारे सिर पर प्रेम और आशीर्वाद भरे हाथ फेरते हैं, तो तुम उन उपकारी हाथ को ही झटक देते हो, कैसी विडम्बना है? श्रवणकुमार की भूमि है, यह कहने में लज्जा का अनुभव करता हूँ.
विडम्बना यह है कि तुम्हारी दृष्टि उनके उस धन पर रही, जो उन्होंने तुम्हारे सुखद भविष्य के लिए संचित किया था, काश ! तुम उनके धन की अपेक्षा उनके दयार्द्र मन को लूटते तो बात थी, तुम उनके मन को देखते तो बात थी, तुम उनकी आत्मा में प्रवेश करते तो उन सुस्वप्नों के तुम प्रत्यक्ष और स्पष्ट दर्शन कर पाते, जो उन्होंने तुम्हारे लिए सालों से संजो रखे थे और तुमसे बड़ा महामूर्ख कौन होगा, अभागा भी कौन होगा, जो अपने लिए ही संचित धन को पाने के लिए, उन लोगों की आत्मा की हत्या कर दें,उनके हृदयों को निर्ममता से विदीर्ण कर दें, जिनके समान निश्छल हितैषी तीनों लोकों में दशकों तक ढूंढने से भी नहीं मिल पाएगा. तुम बहुत ही अभागे हो, तुम्हें उनका धन तो मिलता ही, तुम्हें आशीर्वाद भी मिलते, उनके अनुभवों की अकूत सम्पदा के स्वामी भी तुम अनायास बन जाते. कैसे हतभाग्य हो?I
हालांकि मैं राग-द्वेष से परे हूँ, फिर भी तुम्हारे सभी आचरणों और उन हितैषियों की विवशता-विकलता को देखकर, उनके भीतर के रक्तरंजित आंसुओं के सागरों को देखकर मैं ईश्वर “भी” अपनी आँखों को भीगने से नहीं रोक पा रहा हूँ, मैं बहुत ज्यादा व्यथित हूँ, अत्यधिक आक्रोशित हूँ.
कंस, रावण, दुर्योधन, दू:शासन, जरासन्ध के प्रति मैं कभी प्रतिकार की इतनी उग्र भावना से भारित नहीं हुआ था, जितना दुष्टो ! तुम्हारे प्रति मेरा क्रोध छलक रहा है. इतना आक्रोशित हूँ कि तुम्हें इसी समय प्रलय के ऐसे विचित्र झंझावात में डाल सकता हूँ कि तुम त्रस्त होकर मरने की इच्छा करो परन्तु मैं तुम्हें सालोंसाल तक मरने भी न दूं, तुम सभी को कराहते-तड़फते देखने की मनेच्छा है, मेरी.
जानते हों, मैं फिर भी चुप क्यों हूँ, तुम्हारा सर्वनाश क्यों नहीं कर रहा हूँ, मुझे बांध किसने रखा है, किसने मेरे सुदर्शन चक्र को बरबस रोक रखा है.
किसने?
आखिर किसने?
तुम्हारे उन्हीं शुभचिन्तकों ने, न जाने कितनी बार तुम्हारे दीर्घ और सुखी जीवन के लिए कातर प्रार्थनाएं की. हर दरवाजे पर मनौती माँगी, न जाने कितने साधू-सन्तों से तुम्हारे लिए आशीर्वाद मांगे. तब मैंने उनकी कातर स्वरों में की गई, हजारों बार की गई प्रार्थनाओं के चलते मन ही मन उनको तुम्हारे प्रति आश्वस्त किया था, इसलिए मैं तुम्हारे विनाश के लिए अपने क्रोध का प्रयोग नहीं पा रहा हूँ, जानते हो ऐसी प्रार्थनाएं उन्होंने तब भी की थी, जब तुमने सभी सीमाओं को लांघ कर उनको रक्त के आंसुओं से रुलाया था. तुम जब उनके हृदयों को छिन्न-भिन्न-विदीर्ण कर रहे थे, तब भी वे तुम्हारे प्रति खिन्न नहीं थे, एक दया और करुणा का भाव था. वे अपनी सन्तानों को भला अशुभकामनाएं कैसे दे सकते थे. इसीलिए मेरे लिए कहा जाता है, त्वमेव माता च पिता त्वमेव. तुम मुझे प्रसन्न करने के लिए मन्दिरों में भटकते हो, जबकि मैं तुम्हारे घर ही में विराजमान माता-पिता में निवास करता हूँ. स्मरण है या भूल गए, तुमने मुझसे ही प्रार्थना की थी कि इन्हें शीघ्र अपने पास बुला लो, मैंने तुम्हारी निर्लज्ज और संस्कारहीन प्रार्थना का तिरस्कार किया, परन्तु उनका ह्रदय इतना छलनी हो चुका था कि वे अन्तत: असमय काल कलवित हो गये.
हालाँकि मैं उनकी कातर प्रार्थनाओं से बंधा हुआ हूँ, परन्तु मेरी एक व्यवस्था है, जो कल्प कल्पान्तारों से निर्बाध सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान है. तुमने चित्रगुप्त का नाम सुना होगा, वह मेरा लेखाधिकारी है, मैंने उसे प्रत्येक मनुष्य के मन-मस्तिष्क में विराजमान कर दिया है. उसका एक ही काम है कि जो भी तुम करते हो, उसका गुप्त रूप से चित्रांकन. तुमने सम्भवत: पढ़ा होगा कि विज्ञान अब तक मानव मस्तिष्क के 7- 8 प्रतिशत हिस्सों के विषय में ही जान पाया है, अवचेतन की अनन्त सम्भावनाओं के विषय में आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान पाया है, ऋषि-मुनियों ने ध्यान के द्वारा बहुत सीमा तक उसके विषय में जान लिया था. तुम्हारी मन, वचन और कर्म से नितान्त एकान्त में की गई एक-एक गतिविधि का चित्रण उसमें होता रहता है और बाद में नीर-क्षीर विवेक के साथ तुम्हारे भीतर विराजमान चित्रगुप्त ही अपनी दण्डात्मक कार्रवाई सक्षमता से कर लेता है, किसी भी न्यायालय में कोई याचिका उस दण्डात्मक कार्रवाई के विरुद्ध सम्भव नहीं है. तुम्हे बताना चाहता हूँ, सचेत करना चाहता हूँ कि चित्रगुप्त ने मेरी व्यवस्था का अनुपालन करते हुए तुम्हारे माता-पिता के रक्त रंजित आंसुओं को संचित कर लिया था और उन्हीं रक्त मिश्रित अश्रुओं से तुम्हारे भाग्य के कोरे कागजों पर तुम्हारा भविष्य अंकित कर दिया है. तुमने अपने पिता की सम्पति कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवा कर अपने नाम कर उन्हें घर से निकाल दिया था, चित्रगुप्त को तुम्हारे हस्ताक्षरों की भी आवश्यकता नहीं है, वे जो लिखते हैं, विधि का विधान उसे क्रियान्वित करने के लिए बाध्य है.
इतने से मैं तृप्त नहीं होता हूँ, मैंने एक और व्यवस्था दी है, जो तुम्हारी सन्तानें हैं, ना, उनके भीतर भी तुम्हारे कृत्यों को चुपचाप अंकित करवाता रहता हूँ. प्रकृति की एक व्यवस्था है कि जब तुम एक बीज धरती माता में रोपते हो तो असंख्य गुना मिलता है, बस ! उसी प्राकृतिक व्यवस्था के तहत तुम्हारी सन्तानें स्वत: ही तुम्हें तुम्हारे कृत्यों का प्रतिसाद देगी. जैसा बोओगे वैसा पाओगे, यह अटल नियम है.
जीते जी जिन्हें तुमने मार डाला, उनका श्राद्ध अब इसीलिए कर रहो न कि पण्डितों और साधू-सन्तों ने तुम्हें सचेत किया है कि तुम्हारे पितृ अतृप्त हैं. काश ! उनके जीते जी, उनका आशीर्वाद तुम्हें मिल पाता, तुम ही चुक गए.
मृत माता-पिता, सास-ससुर की पीड़ा के कारण तुम्हें जो आजीवन असह्य कष्ट मिलने वाला है, वह तो अवश्यसंभावी है, यदि तुम चाहते हो कि उसको सहने की शक्ति तुम्हें मिल जाए तो जीवन में कुटिलता, कपट, छल, परपीड़ा का सर्वथा त्याग कर दो. प्रामाणिकता से अपने कर्तव्यों का पालन करो.
जिनके माता-पिता, सास-ससुर जीवित हैं, वे अपने अहंकार और झूठे अभिमान को ताक में रखकर अपने माता-पिता, सास-ससुर के चरणों का नित्य स्पर्श करें, श्रद्धा के साथ. उनसे ऊंची आवाज में बात न करें, विनम्रता से व्यवहार करें, उनके सम्मान को भूलकर भी ठेस ना पहुंचाएं. देवता स्वरूप माता-पिता को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानो, उनकी सलाह को माने. दुष्ट और षड्यंत्र से भरे लोगों को मित्र मानकर तुम्हारा जीवन सुखमय नहीं होने वाला है. अपनी सन्तानों को अपने माता-पिता की अनुराग से भरी निश्छल छाया से वंचित कर मनुष्य बनने की अनन्त सम्भावनाओं को धूमिल करने के महापाप और महासंताप से बचना ही श्रेयस्कर है.
(मित्रो ! मैं पुत्र के क्रन्दन के बाद सर्वपितृ अमावस्या तक बहू, पुत्री, दामाद का क्रन्दन लिखना चाहता था, इस बीच परमात्मा ने इण्टरविन किया और फिर मेरा अस्तित्व एक दर्शक से अधिक नहीं रहा, इसके भीतर छूपे प्रभु के संदेशों को समझें, इसी में परमात्मा की इस रचना का साफल्य समाहित है.)

— डॉ.मनोहर भण्डारी