कहानी

रावण हत:

# रावण हत:

राम-रावण संग्राम का बारहवां दिन बीता है। श्रीराम के शिविर में मंत्रणा हो रही है । सुग्रीव के मुख पर चिंता स्पष्ट दिखाई दे रही है । व्यग्र भाव से वे कहते हैं ।
” प्रभु ! रावण अति मायावी है । गत दस दिनों में आपने उसे पचास से अधिक बार छिन्न विच्छिन्न कर दिया किन्तु वह पुन: पुनः उठ खड़ा होता है । ”
श्रीराम भी कुछ चिंतित प्रतीत हो रहे हैं । बोले – ” आपकी बात सत्य है मित्र । क्या आपके पास कोई सुझाव है ?”
सुग्रीव बड़े संकोच के साथ कहते हैं – ” प्रभु ! आपके समक्ष कहते संकोच होता है किन्तु मन में एक विचार आया है।”
श्रीराम के मुख पर चिरपरिचित मृदु मुस्कान आ जाती है।
वे सुग्रीव की ओर देखकर निस्संकोच अपनी बात कहने का संकेत करते हैं।
सुग्रीव कहते हैं ” प्रभु ! रावण सेना के सभी रथी , महारथी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं । स्वयं रावण मरणासन्न है । वह प्रतीक मात्र रह गया है प्रतिरोध करने का सामर्थ्य अभी उसमें नहीं है । तो क्युं ना हम सेना सहित नगर प्रवेश कर माता जानकी को लेकर आ जाएं । कोई प्रतिकार की संभावना भी नहीं है । रावण की मृत्यु की प्रतीक्षा में समय नष्ट क्यूं करें ?? ”
श्रीराम तनिक गंभीर होकर कहते हैं – ” मित्र ! आपका अनुमान सर्वथा उचित हैं किन्तु यदि केवल जानकी को लाना ही लक्ष्य होता तो यह कार्य तो पवनपुत्र हनुमान ही कर सकते थे । आपने स्वयं देखा है , वे तो हिमालय से पर्वत उठा लाए थे । मित्र ! सीता की मुक्ति के साथ साथ भय और आतंक के शासन का समूल नाश ही हमारा लक्ष्य है और आततायी रावण की मृत्यु के बिना वह पूरा नहीं हो सकता ।”
सुग्रीव अपनी व्यग्रता पर लज्जित होते हैं ।
” क्षमा करें प्रभु ! आप सत्य कह रहें हैं । यदि रावण जीवित रह गया तो पुनः निरीह प्राणियों पर अत्याचार करेगा ।
वह दुस्साहसी और बलशाली है तभी तो आप श्री के सम‌क्ष भी काल को टाल रहा है ।”
इस बार प्रत्युत्तर लक्ष्मण ने दिया – ” महाराज सुग्रीव , कोई कितना भी बलशाली क्युं न हो काल को नहीं टाल सकता।यह तो निश्चित ही किसी निर्मल ब्राह्मण हृदय की शुभेच्छा और एक सतीत्व की प्रार्थना का ही फल है जो वह जीवित है।” ऐसा कहते हुए रामानुज की दृष्टि विभीषण की ओर जाती है । विभीषण विकल व्यथित मौन बैठे हैं । अपनी आंखें बंद कर वेदना को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं ।
सुग्रीव कहते हैं ” प्रभु ! हमें विश्वास है रावण निश्चित मारा जाएगा, केवल समय की बात है ।”
प्रभु श्रीराम कुछ चिंतित भाव से कहते हैं – ” समय भी तो नहीं है मित्र ! कल दशमी है । कार्तिक अमावस्या को मुझे किसी भी स्थिति में अयोध्या पहुंचना ही होगा अन्यथा मुझे भय है भरत कोई अप्रिय निर्णय ना कर ले ।”
भरत के स्मरण से श्री‌राम विह्वल हो उठते हैं और उनके कंपित स्वर सबको उनकी मनःस्थिति से अवगत करा देते हैं ।
विभीषण कहते हैं- ” प्रभु ! आपका भ्रातप्रेम अनुपम है। आप निश्चित ही मेरी व्यथा को समझ सकते हैं।”

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इधर लंका में , वैद्य समुह रावण के परिचारण में व्यस्त है । शरीर का कोई अंग नहीं जो विदीर्ण न हो । दशानन का दीप्त मुखमंडल अब असह्य पीड़ा के ताप से मलिन पड़ चुका है । जिन अधरों से स्फुर्त अट्टहास की दामिनी निकलती थी वे वेदना के काले बादल से लग रहे हैं। जिस ओजस्वी देह के पराक्रम ने तीनों लोक को अचंभित कर दिया था वह निष्प्राण सा लेप और उबटन से लिप्त निढाल पड़ा है ।
वैद्यराज कहते हैं – ” महाराज , घावों को भरने का भी समय नहीं मिल पा रहा ‌।”
रावण मौन था , मौन ही रहा। केवल संकेत से सभी वैद्यों को जाने का आदेश दिया ।
कोई नहीं बचा था जिससे वह अपनी पीड़ा कह सके । अंततः उसने महारानी मन्दोदरी से मिलने का निश्चय किया । दूत से संदेश मिलते ही महारानी शिविर में आ गईं । बारह दिनों के बाद रावण से मिली थी रानी । समाचार तो सब मिलता ही था पर साक्षात रावण को इस अवस्था में देख वह व्याकुल हो उठी । अश्रुधार नयनों से रिसकर रावण के शरीर पर गिरे । रावण ने मंदोदरी को देखा । बहुत कुछ कहना चाहता था पर कुछ कहते नहीं बन रहा था । वह ऐसी विकट परिस्थिति का सामना पहली बार कर रहा था । मंदोदरी ने ही कहा – ” स्वामी , आपके हठ ने सब नष्ट कर दिया। प्रभु , मेरा अवलंब केवल आप हैं , मैं आपको नहीं खोना चाहती। प्रभु , मैं करबद्ध प्रार्थना करती हूं अब भी उस सीता को वापस कर युद्ध समाप्त कीजिए। ”
अंतिम वाक्य ने रावण के अहंकार को फिर आहत कर दिया। घायल शरीर में प्राण लौट आया। उसनेे पूरी शक्ति से चरण प्रहार किया ।मंदोदरी इस अप्रत्याशित प्रहार से गिर पड़ी । रावण ने कुछ कहना चाहा पर पीड़ा के वशीभूत केवल कराह ही मुख से बाहर निकले । मंदोदरी ने इस वेदना को अनुभव किया । वह असहाय किन्तु क्रोध से तप्त रावण को देख अत्यंत दुखी हुई । अनायास ही उनके मुख से उद्गार फुटे
” हे महादेव ! इस वेदना से मुक्त कीजिये मेरे स्वामी को । इतनी पीड़ा से मृत्यु भली ।”

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विभीषण कहते हैं- ” प्रभु , क्या अपने सहोदर का अहित चाहना उचित है ? श्रीराम मुस्कुराते हुए कहते हैं।
” मैं आपकी दुविधा भली भांति समझता हूं लंकेश ! समय आपको सही राह दिखाएगा। मैं केवल इतना ही कहूंगा कि मृत्यु अहित नहीं मुक्ति भी हो सकती है। ”
तभी एक गुप्तचर संदेश लेकर आता है । श्रीराम को नमन कर रावण-मंदोदरी वृत्तांत सुनाता है। रावण की मनोदशा सुनकर श्रीराम विभीषण की ओर देखते हैं । विभीषण कुछ सोचते हैं फिर स्थिरचित्त हो कहते हैं ।
” प्रभु ! रानी मंदोदरी के कथन सत्य हैं अब मृत्यु ही महाराज रावण की मुक्ति का एकमेव साधन है। ऐसी स्थिति तो मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद है। प्रभु ! मैं आपसे एक भेद कहना चाहता हूं। रावण की नाभि में अमृत कुंभ है और इसे सुखाने वाला बाण रानी मंदोदरी के पास सुरक्षित है ।”

श्रीराम विभीषण के कांधों पर हाथ रखकर सांत्वना देते हैं और हनुमान की ओर देखते हैं। हनुमान जो आज्ञा कहकर उड़ान भरते हैं ‌।

अगले दिन जयघोष ध्वनि से नभ गुंजायमान हो उठा।

” रावण हत: ।”

समर नाथ मिश्र
रायपुर