लघुकथा

लघुकथा – विदा का वक्त

   शाम गहरा रही थी। दोनों का एक दुसरे से विदा लेने का वक्त आ चुका था। राजीव अमेरिका जाने के निर्णय पर अडिग था जब कि विभा अपनी माँ को छोड़कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी । हो भी कैसे ? माँ का उसके अलावा दुनिया में था कौन।
      राजीव और विभा काॅलेज में मिले थे। राजीव की इंटेलिजेंस से विभा बहुत प्रभावित थी और विभा के सादगी से राजीव। धीरे धीरे दोनों में दोस्ती गहराती गई और फिर उन्होंने साथ जीने का फैसला कर लिया। घर वाले भी इनकी खुशी में खुश थे ।
    दिन हंसी ख़ुशी से गुजर रहे थे । राजीव के सपने बहुत बड़े थे और विभा छोटी छोटी बातों में खुशी ढुंढ लेती थी ।
   एक दोपहर मोबाइल पर राजीव का मैसेज आया कि वह शाम को  पार्क में मिलना चाह रहा है। विभा तय स्थान प्रथम पहुंची तो राजीव ने उसके बांह पकड़ कर खुशी के मारे गोल गोल घुमा दिया ।
  “अरे अरे .. रूको तो, बात क्या है इतना खुश हो,” विभा ने उसे रोकते हुए मुस्करा कर कहा ।
   ” मुझे अमेरिका के टाप वन कंपनी में जॉब मिल गया है। पांच साल का कांट्रैक्ट है बहुत ही शानदार पैकेज है ।”
  राजीव की बात सुनकर विभा खुश तो हुई पर अचानक उदास हो गई ।
   ” तो तुम अमेरिका चले जाओगे मुझे छोड़ कर वो भी पांच साल के लिए। “
  ” नहीं , तुम भी चलो । हो सकता है हम वहीं शिफ्ट हो जाएं ।” राजीव ने उसके हाथ थामकर कहा ।
  ” सभी अपनों को छोड़कर ?? और मेरी माँ? उनका कौन ख्याल रखेगा ?” विभा बोली ।
   ” अरे , क्या बात कर रही हो!! इतना अच्छा अवसर सबको नहीं मिलता। इस दिन के लिए कितना इंतजार और मेहनत की है मैंने। सब मैनेज कर लेंगे ।” राजीव थोड़ा झुंझलाकर बोला ।
    विभा चुप हो गई । वह माँ को अकेला छोड़ नहीं सकती और राजीव पर जबरदस्ती नहीं करेगी । एक तो वह मानेगा नहीं, मान भी गया तो जिंदगी भर उसे कोसेगा ।
    ” ठीक है, तुम चले जाओ। मैं तुम्हारी खुशी से बहुत खुश हूं । और भगवान से प्रार्थना करूंगी कि तुम्हारे सारे सपने पूरे हो । पर मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं जिसको मैं ‌नही छोड़ सकती । ” गहरी सांस लेकर विभा ने राजीव की तरफ देखते हुए कहा और उठ खड़ी हुई ।
   राजीव शाक्ड रह गया । ” तो तुम मेरा साथ नही दोगी । “
   ” अब इस बात का कोई मतलब नही है राजीव। तुम अपने सपने पूरा करो। और एक अच्छी याद बनकर तो हम हमेशा साथ रहेंगे ।” विभा मुस्करा कर बोली ।
   दोनों उठ खड़े हुए .. एक दुसरे के तरफ पीठ किए थोड़ा ठिठके और चल पड़े अलग अलग रास्तों पर अलग अलग मंजिलों की तरफ।
 — साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)