पर्यावरण

वन्य जीवों के संरक्षण हेतु विशेष कदम उठाने की जरूरत

प्रकृति पेड़-पौधे व जीव-जंतुओ से प्यार ।
बन्धुओ! यही तो हैं अपने जीवन का आधार ।।
वन्य जीवों व पर्यावरण का संरक्षण करना बहुत महत्ती आवश्यकता हैं। वन्य प्राणी व पर्यावरण पर दिनोंदिन वार बढ़ते जा रहे हैं जो बेहद चिंता का विषय हैं। इनका संरक्षण खना मानव जाति का आवश्यक कर्तव्य है और कर्तव्य-निर्वहन हेतु मानव जाति को अपने चन्द व्यक्तिगत स्वार्थों का परित्याग करना होगा।मनुष्य के लिये वन प्रकृति का ऐसा वरदान है, जिस पर उसका अस्तित्व, उन्नति एवं समृद्धि निर्भर हैं। वनों में जिन्दगी बसर करने वाले वन्य जीवों से मानव जाति का युगों से विशिष्ट सम्बंध रहा हैं। अपने विकास की प्रारम्भिक अवस्था में मानव जाति एक वन्य जीव ही थी। विकास के बढ़ते कदमों एवं बुद्धि विकास तथा विकसित मस्तिष्क के परिणामस्वरूप मनुष्य धीरे-धीरे वन्य जीवन से अलग होकर सामाजिक बन गया और अपने उद्भव की कहानी को विस्मृत कर प्रकृति का स्वामी बन गया। प्राकृतिक वन और उसमें विचरण करने वाले वन्य प्राणी आज भी मनुष्य की सहायता के बिना जीवित रह सकते हैं। जबकि मानव समाज इनके अभाव में अपना अस्तित्व बहुत दिनों तक कायम नहीं रख सकता। प्राणिमात्र के अन्तर्संबंधों, पारस्परिक आत्मनिर्भरता और जैविक जगत के बारे में जितना ज्ञान भारतीय दर्शन में विद्यमान रहा है, जितना प्रकृति, पानी, हवा, पेड़-पौधे, वनस्पति जीवों की पूजा आराधना एवं संरक्षण की ओर ध्यान दिया गया है, उतना संसार की अन्य किसी भी सभ्यता में नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण के बारे में जितनी सोच-समझ प्राचीन भारतीय समाज को रही है उसकी शतांश भी पाश्चात्य ज्ञान में नहीं है। लेकिन कैसी विडम्बना है कि आज प्रकृति और वन्य जीवन संरक्षण की बात विदेशी लोग हमें बता रहे हैं जबकि प्रकृति संरक्षण तो हमारी भारतीय जीवन पद्धति का अंग हैं।
संरक्षणः दशा एवं दिशा 
भारत देश के अतीत में यदि हम जायें, तो पायेंगे कि कवियों की कविताओं एवं लेखकों की रचनाओं में भारतवासियों के प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति वर्णन से रोम-रोम पुलकित हो उठता हैं और मन उनके प्रति अपार श्रद्धापूरित होकर धन्य-धन्य कह उठता है। रह-रहकर विचार आता है कि कैसा था तब यह सुरभित देश। ऋषि कन्याओं द्वारा प्रिय वृक्षों का लालन-पालन, गाँव-गाँव में बाग-बगियाँ, वन-उपवन, राजप्रासादों, ऋषि-आश्रमों, बगीचियों और राजमार्गों पर अर्जुन, अशोक, केतकी, कदम्ब, चम्पक, नागकेसर, मंदार, केल, मौलश्री और भाँति-भाँति की लताओं का रोपण करना, न केवल गौरव की बात थी बल्कि उनकी दिनचर्या और तत्कालीन जीवन-शैली, का अभिन्न अंग था। हमारे पुरखों से विरासत में मिला यह प्रकृति प्रेम, वृक्षों के रूप में झलकता जीवन-सौंदर्य और सुन्दर वृक्षों के प्रति लगाव आज कितना रह गया है, यह आज प्रत्येक व्यक्ति के आत्ममंथन का विषय हैं। हमारे देश में ऋतुएँ माह-प्रतिमाह परिधान बदल कर रंगबिरंगी शोभा लुटायी करती थी और हरे-भरे खेत, खलिहान, कुएँ, तालाब, हृष्ट-पुष्ट गायें और दुधारू पशु, धन-धान्य, दूध-मक्खन से भारत को समृद्ध बनाए हुए थे। आज प्राकृतिक वन क्षेत्र घटते जा रहे हैं, वृक्षों की अनेक प्रजातियाँ नष्ट हो गई हैं। बढ़ते भौतिकवाद एवं सुविधाभोगी व्यवस्था के कारण लोगों में वृक्षों के सौन्दर्य और उनके प्रति आदर भावना का निरन्तर ह्रास हो रहा है। बढ़ती औद्योगिक बस्तियों, फैलते-पसरते गाँव-नगर और बढ़ती जनसंख्या ने प्राकृतिक संसाधनों पर कहर ढा दिया है। वनक्षेत्र सिमटते चले जा रहे हैं। जलवायु में परिवर्तन हो रहा हैं। वैज्ञानिक तापक्रम में वृद्धि की चेतावनी दे रहे हैं। इसलिये प्रकृति एवं वन्य जीव संरक्षण आज एक चुनौती हैं। क्या ये सुन्दर वन्य प्राणी, रंग बिरंगे पक्षी और मनोहारी वन-प्रदेश आज बदलते परिवेश में सुरक्षित रह पायेंगे? क्या पक्षियों की कुछ सुन्दर प्रजातियाँ, जिन्हें चन्द्र वर्षों पहले हमारे पूर्वजों ने देखा था और अब लुप्त हो गए हैं, फिर हम देख पाएंगे? कदम्ब, अशोक और कल्पवृक्ष जैसे अनमोल वृक्ष तो अब दिखाई ही नहीं दे रहे हैं। क्या पलाश के केसरिया जंगल, कचनार, सेमल के सुन्दर फूलों से लदे वृक्ष और मरू, शोभारोहिड़ा पुष्पों की पिताम्बरी आभा देखने को हम तरस जायेंगे?
वन्य जीवन एवं पर्यावरण-
विकास के दबाव ने प्राकृतिक उपादानों का विवेकहीन दोहन-शोषण करके आज हमें पर्यावरणीय संकट के ऐसे कगार पर ला खड़ा किया कि अब प्राणिमात्र का अस्तित्व भी संकट में है। ऐसी स्थिति में हमारी अमूल्य धरोहर वन्य प्राणियों का क्या महत्व रह जायेगा? शुद्ध प्राणवायु का अभाव, दूषित जल, उर्वरकों और कृत्रिम रसायनों से मृदा की मौलिकता ह्रास, सिमटते प्राकृतिक वन, वायुमंडल में गैसीय प्रदूषण से बढ़ता तापक्रम, खाद्यान्नों में जैविक-जनित पोषकता का ह्रास और वर्षा का अभाव आदि पर्यावरणीय अवयवों के मौलिक स्वरूप पर ही आज आघात हो रहा है तो वनस्पति और वन्य जीवन के संरक्षण पर स्वतः ही एक प्रश्न-चिन्ह लग जाता हैं। संसार के अन्य देशों में जंगली जीवों का विनाश शिकार और उनकी उपेक्षा के कारण ही हुआ है। जिसके परिणामस्वरूप वन्य पशु-पक्षियों की संख्या बहुत कम रह गई हैं। अनेक नस्लें समाप्त हो गई हैं। अतः ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय उद्यानों, संरक्षित वनांचलों में इन वन्य पशु-पक्षियों को सुरक्षित और संरक्षित किये जाने की आवश्यकता महसूस की गई। इसलिये अनेक देशों की भांति भारत में भी राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारणों की स्थापना की गई हैं।
वन्य जीवन एवं पर्यावरण
विगत 3-4 दशकों से अभ्यारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना के बाद इर्द-गिर्द निवास करने वाले किसानों, ग्रामीण और पशु-फलकों तथा वन कर्मचारियों/अधिकारियों के बीच टकराहट बढ़ी है। यह संघर्ष वस्तुतः दृष्टिकोण का है क्योंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन जंगलों का उपयोग करते आये हैं। उनके इन अधिकारों से जंगलात वाले उन्हें वंचित कर रहे हैं। दूसरी ओर वन अधिनियमों, वन्य जीव सुरक्षा अधिनियमों के अन्तर्गत संस्थापित अभ्यारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधक, वनकर्मियों का दृष्टिकोण इस क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप को रोककर लुप्त होते जा रहे वन्य प्राणियों के निर्विघ्न विचरण और उन्मुक्त वातावरण का निर्माण करने का है। परिणामस्वरूप वे लोग सरकारी नियमों और व्यवस्थाओं में बंधकर भाँति-भाँति के नियंत्रण और रोकटोक करते हैं। इसलिये वैकल्पिक व्यवस्थाओं की आवश्यकता है ताकि जंगल, वन्य जीवन और ग्रामीण एक-दूसरे के पूरक बने न कि प्रतिद्वंदी वन्य पशु और मानव उपयोग के बीच एक साझेदारी व्यवस्था होनी चाहिए। प्राकृतिक संतुलन एवं स्वतः वन संरक्षण – वन्य प्राणियों से प्राकृतिक संतुलन बना रहता है। उदाहरणार्थ वन्यप्राणी अपने दैनिक क्रिया कलापों से किसी न किसी रूप में जंगल में जमीन खोदकर हल चलाने का काम करता है। वहीं हिरण एक ओर जंगली घास और झाड़ियों को खाकर पेड़ों की निराई का काम करता है तो दूसरी ओर सुअर द्वारा खोदी गई जमीन में गिरे पेड़-पौधों के बीजों को उगाने के लिये मींगणी का खाद डालता हैं। कछुवा, मगरमच्छ और घड़ियाल नदियों के पानी को प्रदूषित होने से बचाते हैं। रीछ जमीन खोदने में सुअर का सहयोगी है तथा जंगलों में फलदार पौधे उगाने में प्रकृति की मदद करता हैं। बाघ भेड़िया जंगल के अलग-अलग भागों में घूमकर वन्य जीवों को पूरे जंगल में बिखेरकर इनकी क्रियाओं को समान रूप से संचालित करते हैं और इनकी बढ़ोत्तरी पर अंकुश रखते हैं। मोर खेतों में घुसकर सर्पों की आबादी पर अंकुश रखता है। तीतर, जंगली चूहों को खाकर खेतों की मिट्टी के उपजाउपन को नष्ट होने से बचाते हैं। पक्षी भी कितनी ही प्रकार की बीमारियों के कीड़ों को खाकर मुनष्य को अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों से बचाते हैं। वन्य जीव मनुष्य के सच्चे साथी हैं। वह एक ओर जंगल के विकास में सहायक होते हैं। वहीं मनुष्य की खुशहाली के आधार भी है। सघन जंगल वर्षा को आर्कषित करते हैं। वर्षा से जल प्राप्त होकर तालाबों, बाँधों और कुँओं में आता है। जंगल की सघनता वन्य जीवों की बहुसंख्या पर निर्भर करती है, जंगल में जितने अधिक वन्य प्रणाली होंगे, वह जंगल उतना ही अधिक गहरा और समृद्ध होगा। अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानव जाति को यदि अपना अस्तित्व बनाये रखना है, पर्यावरण को संतुलित रखना है, पर्यटन को बढ़ावा देना है, वन्य जीवों से सम्बंधित उद्योग एवं व्यापार को विकसित करना हैं, रोजगार के अवसर बढ़ाने हैं एवं स्वतः वनों को बचाये रखना है तो वन्य जीवों का संरक्षण करना होगा। अतः वन्य जीवों को सुरक्षित रखना मानव जाति का आवश्यक कर्तव्य है और कर्तव्य-निर्वहन हेतु मानव जाति को अपने चन्द व्यक्तिगत स्वार्थों का परित्याग करना होगा। हम सभी नागरिकों का कर्तव्य बनता है कि  वन्य जीव संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाएं इसी में वन्य प्राणी सप्ताह मनाने में सार्थकता हैं। वन्य प्राणी हमारे वनों शोभा हैं वन्य जीव व पर्यावरण का संरक्षण आज के समय की बड़ी आवश्यकता हैं दिनोंदिन बढ़ती जनसंख्या घटते साधन बड़ा कारण हैं। जरूरत हैं इनके संरक्षण हेतु विशेष कदम उठाने की।
✍🏻 सूबेदार रावत गर्ग उण्डू 

रावत गर्ग ऊण्डू

सहायक उपनिरीक्षक - रक्षा सेवाऐं, स्वतंत्र लेखक, रचनाकार, साहित्य प्रेमी निवास - RJMB-04 "श्री हरि विष्णु कृपा" ग्राम - श्री गर्गवास राजबेरा, पोस्ट - ऊण्डू, तहसील -शिव, जिला - बाड़मेर 344701 राजस्थान संपर्क सूत्र :- +91-9414-94-2344 ई-मेल :- rawatgargundoo@gmail.com