उपन्यास अंश

भूमिका रामावतार की…भाग-1

भूमिका अर्थात आने वाली घटनाओं के लिए पृष्ठभूमि पूर्व से स्वतः ही बनने लगती है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि जब-जब धरती पर अधर्म बढेगा तो किसी न किसी रूप में आकर मै धर्म की रक्षा करूँगा। भगवान विष्णु ने जब राम का अवतार लिया तो उसके लिए कितने ही श्रापों से मार्ग बनाया गया।
बैकुंठ के स्वामी ने देवऋषि नारद के श्राप से अपने द्वारपालों जय और विजय को मुक्त करने हेतु स्वयं भी श्राप को भोगा।
श्राप के लिए मोझ के मार्ग को बनाने हेतु कितने ही श्रापों तथा वचनों को एकजुट किया गया। राम के अवतरण तथा उनकी लीलाओ के लिए, नारद जी के द्वारा विष्णु को श्राप देना, श्रवणकुमार के माता-पिता का राजा दशरथ को श्राप देना। रानी कैकेई के द्वारा राजा दशरथ से अपने वचनों में राम का वनवास मांगना, नल-नील के द्वारा फेंके गये पत्थर पानी में न डूबने का श्राप आदि….राम अवतरण के लिए सर्वप्रथम भूमिका का तैयार होना तभी प्रारम्भ हो गया था जब क्षत्रीय राजा कौशिक महाऋषि विश्वामित्र हुए। राजा कौशिक का विश्वामित्र हो जाना न केवल राम के अवतरण हेतु आवश्यक था बल्कि उनकी बैकुंड वापसी का मार्ग भी था।
प्रत्येक घटना कड़ियों की भाॅति परस्पर जुड़ी हुई हैं। अब प्रश्न ये उठता है कि क्यों नारद ऋषि ने उन्ही को श्राप दे दिया जिनका सुमिरन वे आठो पहर करते रहते हैं? विष्णु जी के द्वारपालों को श्राप क्यों दिया गया? किस प्रकार सभी श्राप मिलकर एक मार्ग का निर्माण करते हैं जिस पर चलकर एक श्राप पर ही विजय प्राप्त की गई।

बैकुंठ धाम के स्वामी भगवान विष्णु शेष शैया पर आराम कर रहे थे। माता लक्ष्मी अपने कर कमलों से उनके चरणों को दबा रहीं थी तभी भगवान विष्णु ने अपने द्वारपाल जय और विजय को बुलाकर आदेश दिया कि बिना उनकी अनुमति के किसी को भी प्रवेश न दिया जाए। अपने स्वामी की आज्ञा पालन करने हेतु जय-विजय पुनः धाम के मुख्य द्वार पर आकर खड़े हो गए।

भगवान विष्णु के दर्शन करने कई देवता, तपस्वी आदि आए पर जय-विजय ने किसी को भी प्रवेश नही करने दिया।
नारायण! नारायण…का जाप करते हुए देवऋषि नारद आ पहुँचे। जैसे ही उन्होने द्वार से प्रवेश करना चाहा जय-विजय ने अपने भाले को द्वार के सम्मुख लगाकर उनका मार्ग अवरूद्ध कर दिया।
जय-विजय ये क्या कृत्य है? मुझे भीतर जाने से क्यों रोका? नारदमुनि ने आश्चर्य से पूछा क्योंकि तीनो लोकों में एक मात्र नारद जी ही हैं तो कहीं भी, किसी से भी बिना किसी अनुमति के मिल सकते हैं।

स्वामी का आदेश है कि बिना उनकी अनुमति के किसी को भी भीतर प्रवेश न करने दिया जाए।
मै तो उनका नाम प्रत्येक क्षण लेता रहता हूँ। वो आदेश हमारे लिए नही होगा। कहते हुए नारद जी ने पुनः प्रवेश करने का प्रयास किया।
इस बार जय-विजय स्वंय द्वार के सम्मुख खड़े हो गए और नारद जी का मार्ग अवरूद्ध करते हुए बोले
नारदजी! स्वामी का आदेश किसी विशेष या अतिविशेष हेतु नही अपितु सभी के लिए एक समान रूप से प्रभावी है। सुनकर नारदजी ने क्रोधित होते हुए द्वारपालों को देखा और पुनः प्रवेश करने के लिए आगे बढे।

इसबार नारदजी को रोकने हेतु जय-विजय ने अपने हाथों से नारद जी को थामकर प्रवेश न करने दिया। इससे नारदजी अत्याधिक क्रोधित हो गए।
दुष्ट द्वारपालों! तुमने हमसे असुरों सा आचरण किया है। एक बार नही अपितु तीन-तीन बार, जाओ मै तुम्हें श्राप देता हूँ तुम तीन जन्मों तक असुर कुल में ही जन्म लोगे।
नारदजी के वचन सुनकर जय-विजय कांपते लगे क्योंकि नारदजी के श्राप से उनकी रक्षा कोई भी नही कर सकता था। स्वंय भगवान विष्णु भी नहीं। वो दोनो नारदजी के चरणो मे गिर गए और छमा-याचना करने लगे और कहने लगे कि हम तो अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर रहे थे। इसमें उनका क्या दोष?

वो कहते हैं ना ऋषि-मुनियों का स्वभाव मक्खन के समान होता है, पल में नर्म और पल में कठोर। दोनो द्वारपालों ने विलाप करना प्रारम्भ कर दिया जिसे देखकर नारदजी का ह्नदय पिघल गया और वो बोले
“मेरा श्राप निष्फल तो नही हो सकता पर मै तुम्हारे मोक्ष का मार्ग बतला सकता हूँ।” सुनकर जय-विजय हाथ जोड़कर नारदजी के सम्मुख खड़े हो गये।
“जिनकी आज्ञा के पालन में तुम दोनो ने हमारा अनादर किया वही तीनो जन्मों में तुम्हारा उद्धार करेंगें।

जय-विजय प्रथम जन्म में हिरनाक्ष-हिरण्यकशिपु हुए। असुर हिरनाक्ष को भगवान विष्णु ने शूकर का रूप धरकर वध किया तो हिरण्यकशिपु को नरसिंह का अवतार लेकर। दूसरे जन्म में जय, रावण हुए और विजय कुंभकरण जिनको मोछ प्रदान करने के लिए भगवान विष्णु को भूलोक पर अवतरित होना था। भगवान विष्णु कहते है प्रत्येक सजीव या निर्जीव वस्तु की एक मर्यादा होती है जिसका पालन स्वयं भगवान को भी करना पड़ता है। अतः विष्णु जी के अवतार हेतु भूमिका तैयार होने लगी थी जिसकी प्रारम्भ हुआ जब नारद जी भी एक राजकुमारी से प्रेम कर बैठे और विवाह हेतु उसके स्वयंवर में जाना चाहते थे….क्रमशः

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,