कविता

दिवाली

एक दिवाली ऐसी भी हो
जहाँ न शोर पटाखों का हो
और न बारूदों के धुएं का
जहर हवा में घोला जाये
अपनी हिंसक खुशियों के हित
प्रकृति पर ना दुराचार हो
पशु पक्षी ना व्याकुल होकर
समुचित कहीं ठिकाना ढूंढें
हे मानव के सभ्य समाज
हे प्रकृति की परम जाति
शिक्षा और विज्ञान के युग में
यूँ संवेदन हीन बनो मत
पर्व दिवाली सामूहिक
उल्लास और खुशियों का है
मिटा सकें जो सतत अंधेरा
उन जगमग दीपों का है
बारूदों का धुआं उठाकर
धुंध की इक चादर फैलाकर
बैठे हैं जिस डाल पे हम सब
काट रहे हैं उसी डाल को
आओ रचें समाज एक वो
जो नहीं सिर्फ इंसानों का हो
जिसमें प्रकृति के सब जीवों का
सामावेश भी निश्चित हो
और हमारे सब कृत्यों में
उनका ध्यान भी रखा जाये
जीवन-जीवन मिलें जहां पर
बस सच्चा परिवेश वही है
साहचर्य सम्पूर्ण प्रकृति का
अंतिम बस सन्देश यही है ।

नीरज निश्चल

जन्म- एक जनवरी 1991 निवासी- लखनऊ शिक्षा - M.Sc. विधा - शायर सम्पादन - कवियों की मधुशाला पुस्तक