कविता

ये औरतें भी न…

बडी आलसी होती है
वह औरतें
जो रसोई का हर पकवान
चख चख कर बनाती हैं
स्वाद से खिलाकर
परिवार को चाव से
जब नही बचता कुछ तो
कुछ भी खाकर सो जाती हैं।

बडी लापरवाह होती हैं
वह औरतें
जो घर का हर कोना कोना
सलीके से सजा
धूल मिट्टी की परत से बचाती हैं।
सफाई अभियान में खुद को खपा देती हैं।
कहता है जब आईना ज़रा ख़ुद को भी संवार लो
तो लापरवाह सी
कल पर टाल जाती है ।

बडी अनपढ़ गंवार होती है
वह औरतें
कम आय से भी रसोई,घर, बच्चों
सबकी ज़रूरतें कम बजट में सुचारू चलाती हैं
कंजूस नही होती
पर फिज़ूलखर्ची बचाती हैं
ख़ुद की इच्छाओं को
रसोई की चिमनी से
सबसे बचा कर
बाहर धुवें सी उड़ा देती है।

ये औरतें भी न बड़ी नौटंकीबाज़ होती हैं
भरी हुई होती है कंठ तक
रोने को लेकिन
भीड़ में
बेफ़िक्री का ओढ़ना ओढ़े मुस्कराये जाती है।
सच में अजीब हो
तुम औरतें
हाँ हम औरतें ।।

— रजनी चतुर्वेदी (विलगैंया)

रजनी बिलगैयाँ

शिक्षा : पोस्ट ग्रेजुएट कामर्स, गृहणी पति व्यवसायी है, तीन बेटियां एक बेटा, निवास : बीना, जिला सागर