इतिहास

गांधी और ख़लीफत (भाग – 4) – खलीफत आंदोलन की परिणती थी देश विभाजन

खलीफत-समर्थन से शुरू हुई अवसरवादी राजनीति की ही परिणति 1947 ई. का देश-विभाजन था। इस की सैद्धांतिक स्वीकृति गाँधीजी ने कम से कम दस-ग्यारह वर्ष पहले ही दे दी थी। यह कह कर कि “यदि 8 करोड़ मुसलमान न चाहें तो उन्हें साथ बनाए रखने का कोई अहिंसक तरीका मैं नहीं जानता’’ और, किसी ‘‘घर में एक भाई को अपना हिस्सा अलग माँगने का अधिकार है’, आदि। ऐसे बयानों का क्या अर्थ निकलना था?

वस्तुतः गाँधीजी द्वारा खलीफत का समर्थन करना यहाँ वोट-बैंक की अवसरवादी राजनीति का भी पहला उदाहरण था। वरना गाँधी को तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य से कोई लेना-देना न था। फिर, उसी समय अंग्रेज यहाँ मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919) लाये थे, जिस का गाँधीजी और कांग्रेस ने स्वागत किया था। इसीलिए जब गाँधी ने कांग्रेस को खलीफत जिहाद से जोड़ना चाहा तो शायद ही कोई उन के साथ था। क. मा. मुंशी के अनुसार सभी मानते थे कि गाँधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं “जिस से बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी।”

फिर, खलीफत को मदद देने से संगठित मुस्लिम ताकत बढ़ने का डर था, जिस से वे बाहरी मुस्लिमों से मिलकर यहाँ कब्जा कर सकते हैं। यह डर खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि अनेक मनीषियों ने सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। आखिर, मौलाना आजाद सुभानी जैसे मुस्लिम अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे! वे खुले तौर पर भारत में फिर मुस्लिम-राज चाहते थे। यह सब जानते हुए गाँधी के दबाव में कांग्रेस खलीफत जिहाद में लग गई। लेकिन एक बार ‘जिहाद और काफिरों को मारने’ का आवाहन कर देने पर जिहादियों के लिए ईसाई और हिन्दू, दोनों एक जैसे दुश्मन थे।

स्मरण रहे, ‘असत्य और हिंसा एक दूसरे के बिना टिक नहीं सकते’ (सोल्झेनित्सिन)। गाँधी को भी असत्य में जुड़ने के बाद हिंसा का समर्थन करने पर विवश होना पड़ा। जब यहाँ मुसलमान उग्र होने लगे, तब उन के नेताओं ने सचमुच अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दे दिया। (डॉ. अंबेदकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, पृ. 145)। गाँधी इस के भी समर्थन पर आमादा हो गए! उन के अपने शब्दों में, “यदि अफगानिस्तान का अमीर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध करता है, तो एक तरह से मैं उस की निश्चित रूप से सहायता करूँगा।” (यंग इंडिया, 4 मई 1921)।

अर्थात, यदि अफगानिस्तान का शासक भारत पर कब्जे के लिए हमला करता तो गाँधी इसके भी समर्थन को तैयार थे, क्योंकि यहाँ कुछ मुसलमान यही चाहते थे! इस प्रवृत्ति पर डॉ. अंबेदकर ने आश्चर्य किया था कि जिस हिन्दू जनता ने गाँधी को महात्मा बनाया, उस के हितों को वह एक-दो मुस्लिम नेताओं की इच्छा पर भी बलिदान करने को तैयार रहते थे। ऐसे कामों की सूची देते हुए डॉ. अंबेदकर लिखते हैं, “श्रीगाँधी ने सिर्फ यही बातें नहीं की। जब मुस्लिमों ने हिन्दुओं के विरुद्ध घोर अपराध किए, तब भी उन्होंने मुसलमानों से उस के कारण नहीं पूछे।” (डॉ. अंबेदकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, पृ. 147)। डॉ. अंबेदकर ने धर्मांध मुसलमानों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द, महाशय राजपाल, नाथूराम शर्मा, आदि अनेक प्रमुख हिन्दुओं की हत्या का उल्लेख किया। इन हत्याओं का कई मुसलमानों ने स्वागत किया, हत्यारों को ‘गाजी’ कहकर अभिनन्दन किया। लेकिन “इन हत्याओं पर श्रीगाँधी ने कभी विरोध प्रकट नहीं किया” तथा “श्रीगाँधी ने कभी मुसलमानों से यह न कहा कि वे इन हत्याओं की निंदा करें।” (वही, पृ. 148)

उलटे गाँधीजी ने उन हत्याओं को उचित ठहराने की कोशिश की! मालाबार (केरल) में अगस्त 1920 में मोपला मुसलमानों द्वारा हिन्दुओ पर जो ‘हृदयविदारक अत्याचार’ किए गए वे, डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “अवर्णनीय हैं। समग्र दक्षिण भारत में हरेक विचार के हिन्दुओं में इन से भय की एक भयानक लहर दौड़ गई।” किन्तु गाँधीजी ने निंदा तो दूर, बल्कि अप्रत्यक्ष प्रशंसा की। “मोपलाओं के बारे में उन्होंने (गाँधी ने) कहा कि मोपला भगवान से डरने वाले बहादुर लोग हैं और उस बात के लिए लड़ रहे हैं, जिसे धर्म समझते हैं; और उस तरीके से लड़ रहे हैं जिसे धार्मिक समझते हैं।” (वही, पृ. 149)।

अर्थात हिन्दुओं की बच्चों-स्त्रियों समेत वीभत्स हत्याएं, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, जबरन गोमांस खिलाना, आदि चूँकि ‘धर्म’ समझ कर किये गए, सो गाँधीजी को उस की निंदा तक से परहेज हुआ। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस वर्किंग कमिटी को भी मोपलाओं के अत्याचार पर कोई ऐसा प्रस्ताव लेने से रोका, ताकि ‘‘मुसलमानों की भावनाओं को आघात न पहुँचे।’’ अंततः प्रस्ताव ऐसा लिया गया जिस के अनुसार, मानो मोपलाओं को उत्तेजित किया गया, विवश किया गया, और उन की गलतियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया, आदि। (वही, पृ. 149-50)।

कांग्रेस प्रस्ताव में यह सब लिखना कितना बड़ा झूठ था, यह मोपलाओं द्वारा संहार-अत्याचार वाले उस दौर के अखबार उलट कर भी देख सकते हैं। केरल के गणमान्य हिन्दुओं ने ब्रिटिश महारानी को पत्र लिखकर रक्षा करने की विनती की थी। वह पूरा लोमहर्षक प्रकरण कई देशी-विदेशी महानुभावों द्वारा लिखे इतिहास में दर्ज है। उसे गाँधीजी ने उसी समय झुठलाने और पर्दा डालने की कोशिश की और कांग्रेस को भी इस के लिए मजबूर किया। वह कोई अपवाद न था। खलीफत के पूरे काल में, मुस्लिम हिंसा का समर्थन करने में गाँधीजी ने कोई संकोच नहीं किया।

स्वामी श्रद्धानंद ने एक खलीफत सभा का विवरण दिया है, जिस में वे गाँधीजी के साथ गए थे। उस में मौलाना लोग बार-बार हिंसा का आवाहन कर रहे थे। स्वामी श्रद्धानंद के शब्दों में, “एक रात हम दोनों नागपुर की खलीफत कांफ्रेंस में गए। उस मौके पर मौलानाओं ने कुरान की आयतें पढ़ीं, जिन में बार-बार जिहाद और काफिरों को मारने का आदेश था। परंतु जब मैंने खलीफत आंदोलन के इस पहलू की ओर ध्यान दिलाया, तो महात्मा जी मुस्कुराए और कहने लगे कि वे ब्रिटिश नौकरशाही की ओर इंगित कर रहे हैं। उत्तर में मैंने कहा कि यह सब तो अहिंसा के विचार का विनाश करने जैसा है, और जब मुस्लिम मौलानाओं के मन में उलटी भावनाएं आ गई हैं, तो उन्हें इन आयतों का इस्तेमाल हिन्दुओं के विरुद्ध करने से कोई रोक नहीं सकेगा।” (वही, पृ. 151)

वही हुआ। पर नोट करें, कि गाँधीजी मुसलमानों द्वारा हिंसा के आवाहनों को मुस्कुराकर स्वीकृति दे रहे थे! पूरे खलीफत दौर की व्यवस्थित परख करने पर चकित रह जाना पड़ता है कि गाँधीजी के अहिंसा संबंधी दोहरेपन तथा खलीफत-असहयोग आंदोलन की कितने बड़े पैमाने पर लीपा-पोती की गई है। भारतीय राजनीति में गाँधी के आरंभिक कदमों से ही साफ दिखता है कि उन की समझ, अनुमान, और तरीके कितने कच्चे थे। पर लगातार बड़ी-बड़ी भूलों के बावजूद यहाँ गाँधीजी की महानता का प्रचार बढ़ता गया। इस के लिए बड़ी-बड़ी असुविधाजनक सचाइयों को पूरी तरह दबा दिया गया।

समकालीन मनीषियों, नेताओं, आदि ने गाँधी की जो आलोचनाएं की थी, वह सब लुप्त-सी कर दी गई हैं। इस में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भी बड़ी भूमिका निभाई। मध्यकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं पर जुल्मों को छिपाने की कड़ी के रूप में उन्होंने वर्त्तमान युग में भी हिन्दुओं पर होते जुल्म की लीपा-पोती की। खलीफत-जिहाद का सारा कच्चा चिट्ठा गायब कर उसे ‘खिलाफत आंदोलन’ या ‘मोपला विद्रोह’ जैसे गौरवशाली नाम दे देना, और गाँधी-नेहरू की महानता का अहर्निश गुणगान उसी क्रम में है। भारत के महान ज्ञानियों, संतों, मनीषियों ने जो कुछ भी शिक्षाएं दी थीं, वह सब गाँधीजी के हाथ में कांग्रेस नेतृत्व आने के बाद से भुलायी, झुठलाई जाने लगी। वह परंपरा आज भी चल रही है। तमाम हिन्दू-विरोधी तत्व खलीफत आंदोलन की शताब्दी मनाने के बदले उसे तहखाने में डाल रहे है। संघ-भाजपा द्वारा भी वही रुख लेना उन का अज्ञान है, या गाँधीजी के ही नक्शे-कदम वाली ‘रणनीति’? ऐसी रणनीति जिस का शिकार सदैव हिन्दू हुए हैं। (समाप्त)

– डॉ. शंकर शरण (४ नवम्बर २०१९)