कविता

खुद को लिखते रहो

मैं कोई पाषाण नहीं जो ठोकर खाकर पड़ी रहूं,
न मैं माटी की मूरत हूं जो एक कोने में सजी रहूं।

हृदय मेरा भी कोमल है,दर्द मुझे भी होता है,
सब कष्टों को सहकर भी मैं, हर पल हंसती रहती हूं।

मैं इक बलखाती नदिया हूं ,स्वच्छंद रूप से बहती हूं,
पंख हुए घायल तो क्या, ऊंचे आकाश में  उड़ती हूं।

सागर की गहराई नापूं, चाह तनिक सी रखती हूं,
जब चाहे आकाश को छू लूं, बुलंद हौसला रखती हूं।

खुद को लिखती रहती हूं, खुद को ही मैं पढ़ती हूं,
खुद पर ही है मुझे भरोसा, खुद से ही मैं लड़ती हूं।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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