गजल
शहर को हाय ये हुआ क्या है?
हर जगह धुंध है धुआँ सा है ।
देखकर मेरी खुशी जलता है,
आदमी है कि वो जवासा है?
बोनसाई सी जड़ें ,रिश्तों की,
सोच कर मन मेरा रुआँसा है।
लोग लाशों से लाभ ले लेते ,
इस कदर भूख है,पिपासा है।
तंज कुछ लोग कस रहे हम पर,
मैं तो कहता, कि ये हताशा है ।
‘गंजरहा’ लिख तू ,ये हटेगा भी,
दूर तक दर्द का कुहासा है ।
— डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी