गीत/नवगीत

मिले न राम न माया

जो चाहा पूरे मन से था वो पूरा हो नहीं पाया

खिला था फूल आसों का पल भर में ही मुरझाया

पड़कर मोह में कुर्सी की ऐसी हो गई हालत

गए दुविधा में दोनों ही मिले न राम न माया

उनके मन में ईच्छा आ गई अनायास कुर्सी की

हुए बेचैन लगा कर के वे एक आस कुर्सी की

बुझाने को उसी बस प्यास को घर से निकल गए वो

ये किस मोड़ तक लाई है उनको प्यास कुर्सी की

आके मोड़ पर माथा पकड़ कर बैठे हैं साहब

कैसा मोड़ आया है दिखता बांया न दांया

गए दुविधा में दोनों ही मिले न राम न माया

 

विक्रम कुमार

मनोरा , वैशाली

विक्रम कुमार

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