धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मन का अर्थशास्त्र

आवश्यकतायें अनंत है यह कथन प्रायः मशहूर है और सत्य भी।उसी तरह मनुष्य का “मन”चंचल और अनंत इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनंत पथ पर चलता है।तरह तरह की इच्छा का नित जागरण होता है।और सभी लोग उसकी पूर्ति के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।मन को संयमित करना एक कठिन कार्य माना गया है।जिसका सीधा सम्बन्ध संतुष्टि से है।पर यहां भी विरोधाभास की स्थिति
है ।क्योंकि अगर संतुष्टि ही मन का रूप है तो फि संतुष्ट व्यक्ति की इच्छाएँ नही हो सकती,पर इच्छा तो होती है ।तो फिर मन का संतुष्टि से सम्बन्ध है लेकिन कुछ हद तक ।इसे अर्थशास्त्र की दृष्टि से समझने की कोशिश किया जाय तो आवश्यकता से समझा जा सकता है कोई भी आवश्यक वस्तु का उपयोग उस व्यक्ति के लिए उपयोगी होगा जिसे ज्यादा जरूरी होगी लेकिन उस वस्तु की इच्छा सभी की हो जाय तो वस्तु कम पड़ जाएगी और कलह शुरू हो जाएगा अर्थात मांग के अनुसार वस्तु की अनुपलब्धता।उसी तरह मन की अनेक अनेक इच्छाएँ विपरीत से विपरीत परिस्थति में भी जागृत होती है पर विवेक के साथ मन का मार्ग चुनना ही पडता है।जो व्यक्ति मन को सही मार्ग की तरफ मोड़ लेते है उन्हें सुगमता सरलता विनम्रता कर्तव्यपरायणता और समानता से परिचय होता है और जो मन को भटका लेते या विपरीत दिशा में ले जाते वे कर्तव्यहीनता उदंडता विनाशिता विलासिता और दुराचारिता के पथ पर चलते हुए जीवन को कई उलझनों में धकेल देते हैं।एक मन और कई इच्छाओं का जन्म होता है जिसकी पूर्ति के लिए कई अनैतिक कार्य जन्म लेते हैं जो कभी मानव को सुरक्षित और स्थिर नही रहने देते।
आज का दौर विलासिता से भरी वस्तु के पीछे भागते भागते बीत रही।जीवन सुगमता और सलता ढूँढती रहती है।सभी लोग यही चाहते है काश सब कुछ रिमोटेबुल हो जाय बहुत हद तक है भी।तो क्या जो रिमोटेबुल हो गये है उनका मन शांत क्यूँ नही है?सवाल उठता है उनका मन और ज्यादा रिमोटेबुल होना चाहता है।जो नही है वो वहाँ तक पहुँचना चाहता है अर्थात सभी का मन कार्यरत और अनेको इच्छाओ को पाल रहा है ।यही वो समय है जब मार्ग का चयन आवश्यक हो जाता है ।और आपका विवेक आपके मन को कन्ट्रोल करने लगते है अच्छे और बुरे कार्यों को समझने लगते है और मन को नियंत्रित करते है।जो संयमित और अपनी ईच्छाओ को समय के साथ ढाल लेते है वही सरल सुगम और सुन्दर है।

आशुतोष झा

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