धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुस्मृति पर फैला भ्रम और उसकी सच्चाई

स्वतंत्र भारत में पहले तो हम ने महान शास्त्रों को शिक्षा से बाहर कर दिया। फिर उस पर जिस किसी की नासमझी या राजनीति-प्रेरित निन्दा से प्रभावित होते रहे। मनुस्मृति की नियमित भर्त्सना इस का एक उदाहरण है। जबकि यदि शीर्षक हटाकर मनुस्मृति को किन्हीं भी शिक्षित व्यक्तियों को पढ़ने कहें, तो अधिकांश उसे महान ग्रंथ मानेंगे। किसी निंदक से जब पूछा जाता है कि क्या उस ने मनुस्मृति स्वयं पढ़ी और उस में कोई अनुपयुक्त, अनुचित बात पाई है? तो लगभग सभी ना में उत्तर देते हैं। केवल इतना कहते हैं कि ‘सुना है उस में शूद्रों या स्त्रियों के बारे में कुछ आपत्तिजनक है।’

वस्तुतः मनुस्मृति में वैसा भी कुछ नहीं है। यदि होता, तब भी उस की समालोचना पर्याप्त होती। आज के नजरिए से किसी पुरानी पुस्तक में कोई नापसंद बात मिलने पर भी उसे अपमानित करना हर हाल में गलत है। इसीलिए ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ या ‘कुरान’ जैसे प्रचीन ग्रंथों को सम्मान दिया जाता है, जबकि उस में अनबिलीवर, पगान या दूसरे धर्म-विश्वासियों के लिए अत्यंत अपमानजनक बातें लिखी मिलती हैं। उस दृष्टि से आज दुनिया में कम से कम ढाई अरब लोग अनबिलीवर, पगान, आदि हैं। तो क्या इन्हें उन पुस्तकों को जलाने का अधिकार है? बिलुकल नहीं। तब वही व्यवहार मनुस्मृति के लिए क्यों नहीं रखा जाता? जिस में किसी के लिए भी वैसा कुछ लिखा भी नहीं है। कोई स्वयं यह देख सकता है।
मनुस्मृति के 12 अध्यायों में कुल 1214 श्लोक हैं। इन में क्रमशः सृष्टि, दर्शन, धर्म-चिंतन, सामान्य जीवन के विधि-विधान, गृहस्थ-जीवन के नियम, स्त्री, विवाह, राज्य-राजा संबंधी परामर्श, वैश्य-शूद्र संबंधी कर्तव्य, प्रायश्चित, कर्मफल विधान, मोक्ष और परमात्मा चिंतन है। कुछ प्रकाशनों में मनुस्मृति में इस के दुगने से भी अधिक श्लोक मिलते हैं, किन्तु इन में कई स्पष्टतः प्रक्षिप्त माने गए हैं, यानी जो मूल श्लोकों से टकराते हैं। आधिकारिक विद्वानों के अनुसार अनेक प्रकाशनों में आधे से अधिक श्लोक मूल मनुस्मृति के नहीं हैं।

इस के अलावा यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द की तमाम शिक्षाओं, सेवा और जीवन-कर्म का आधार वेद, उपनिषद और मनुस्मृति हैं। अर्थात्, संपूर्ण भारतीय समाज की जो सेवा इन महापुरुषों ने की, जिस के लिए देश उन्हें कृतज्ञता से नित्य स्मरण करता है, उस की प्ररेणा उन्हें वेदांत और मनुस्मृति से ही मिली है। तो स्वामी विवेकानन्द ने मनुस्मृति को अधिक समझा था या आज के हमारे नासमझ एक्टिविस्ट जो समाज को तोड़ने, लड़ाने के लिए मनुस्मृति पर कालिख पोतते रहते हैं?

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने मनुस्मृति को अपने उपदेश और समाज-सुधार का आधार बनाया था। यदि मनुस्मृति जातिवादी, शूद्र-विरोधी या स्त्री-विरोधी होती, तो वे संपूर्ण भारत में इतना बड़ा आधुनिक, समतामूलक, प्रभावशाली सुधार आंदोलन चलाने में कैसे सफल हुए होते? यह सब प्रमाणिक इतिहास भुलाकर, केवल विदेशी मिशनरियों के दुष्प्रचार से प्रभावित होकर यहाँ अनेक लोगों ने भ्रमवश या जान-बूझकर मनुस्मृति को निशाना बना रखा है। यहां तक कि ‘मनुवाद’ नामक एक गाली तक गढ़ ली!

यह स्वतंत्र भारत की वह दुर्दशा है जो अंग्रेजों, मुगलों के शासन में भी नहीं थी। हिन्दू ग्रंथों की निन्दा करने वाले उसे शायद ही पढ़ते हैं। मनुस्मृति के राज्य-शासन संबंधी तीन अध्यायों के 574 श्लोक अत्यंत गंभीर ज्ञान-भंडार हैं। उनमें अधिकांश आज भी मूल्यवान प्रतीत होते हैं। चार हजार वर्ष पहले इतना गहन चिंतन विश्व में कहाँ था? यूरोप, अमेरिका तब जंगली अवस्था में थे, जब यहाँ ऐसे शास्त्र रचे गए, जिन की बातें आज भी चमत्कृत करती है।

किसी वाक्य या शब्द को पुस्तक के संदर्भ से अलग कर, और बिना अर्थ समझे, निन्दा करना नासमझी या धूर्तता ही है। किसी संज्ञा से आज के किसी समूह को मनमाने जोड़ दिया जाता है। फिर उस से जुड़ी किसी खास बात को निन्दा हेतु चुन लिया जाता है। जैसे, ‘शूद्र’ का अर्थ और स्थिति। हिन्दू परंपरा में शूद्र एक वर्ण है, जन्म-जाति नहीं। वर्ण भी विशिष्ट कार्यों से जुड़े हैं, जन्म से नहीं। तब भी, शूद्र की स्थिति हीन नहीं बताई गई थी। शूद्र भी चार वर्णों में एक सवर्ण थे, जिन का सम्मानपूर्ण स्थान था।

कवि निराला ने अपनी महान कविता ‘तुलसीदास’ में लिखा है कि भारत में शूद्रों की स्थिति पहले सम्मानजनक थी। वह इस्लामी शासकों के काल में ही हीन हुई। निराला के शब्दों में, ‘रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम। जो पहला पद, अब मद-विष-सम’।। निराला ने स्वयं इसका अर्थ यह बताया है, “सेवा के लिए जो पहले शूद्रों को पद मिला वह सम्मानहीन हो उनके लिए विष-तुल्य हो गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों पर ही इस्लाम शक्ति वाली वह छाया फैली अपना काम कर रही थी।”

फिर, व्यवहारिक उदाहरण भी देख सकते हैं। भारत में कभी भी महान, ज्ञानी, ऋषि, राजा, आदि होने का किसी की जन्म-जाति का कोई अनिवार्य संबध नहीं रहा है। स्वामी विवेकानन्द इस के हाल के उदाहरण हैं। वे शूद्र कहलाने वाली जाति में पैदा हुए थे। उन्होंने स्वयं इस का उल्लेख किया है। स्वामी विवेकानन्द के अपने शब्दों में, ‘मुझे चुनौती दी गई कि एक शूद्र को सन्यासी बनने का क्या अधिकार है। उस का मैं उत्तर देता हूँ। मेरी जाति के लोगों ने दूसरी सेवाओं के अतिरिक्त आधे भारतवर्ष पर कई शताब्दियों तक राज्य किया है। यदि मेरी जाति को गिना न जाएगा तो भारत की वर्तमान सभ्यता का क्या बचेगा? केवल बंगाल में मेरी जाति ने महानतम दार्शनिक, कवि, इतिहासकार, पुरातात्विक, धर्मगुरू दिए हैं। मेरे रक्त ने भारत को उस के महानतम वैज्ञानिक दिए हैं। इसलिए इस से मुझे कोई चोट नहीं लगती जब वे मुझे शूद्र कहते हैं।’ (9 फरवरी 1897, मद्रास में व्याख्यान)

विवेकानन्द की इन पंक्तियों से शूद्र और दलितवाद के नाम पर चलने वाले सारे बौद्धिक दुष्प्रचार की वास्तविकता देखी जा सकती है। सर्वप्रथम, प्रमाणित होता है कि सौ वर्ष पहले जिन्हें शूद्र माना जाता था, उन्हें अब नहीं माना जाता। दूसरा तथ्य यह सामने आता है कि शूद्र कोई सदैव दबे-कुचले, दीन-हीन-पीड़ित नहीं थे। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द बता रहे हैं कि शूद्रों ने आधे भारतवर्ष पर सदियों तक राज किया। इस से तीसरा तथ्य भी दिखता है कि चूँकि वे राजकीय सत्ता पर काबिज रहे, अतः शूद्र वर्ण या शब्द का सैद्धांतिक-व्यवहारिक अर्थ केवल शोषित-पीड़ित नहीं हो सकता। व्यवहारिक प्रमाण तो प्रत्यक्ष ही है कि अभी, समकालीन इतिहास में, एक शूद्र अपने ज्ञान और कर्म के बल पर स्वामी विवेकानन्द बनकर, पूरे भारतवर्ष की सब से सम्मानित विश्व-गुरू जैसी हस्ती हुए। यह कोई अपवाद नहीं थे, जिन्हें भारत ने पूजा। पौराणिक विवरणों से लेकर आज तक इस के असंख्य उदाहरण हैं।

अतः मनुस्मृति का ‘शूद्र’ आज का फँला समूह या जाति है, यह मनमाना निष्कर्ष है। इस में घोर बचपना, अज्ञान या राजनीतिक धूर्तता ही है। भारतीय परंपरा में जाति शब्द के ही असंख्य अर्थ हैं। आर्य-जाति, स्त्री-जाति, हिन्दू-जाति, आदि प्रयोग सदैव चलते रहे हैं। फिर यह ‘शिड्यूल्ड कास्ट्स’ वाली सूची तो सौ साल पहले अंग्रेजों की बनायी हुई है। भारतीय साहित्य या न्याय में कहीं, कोई सूची न थी। इसलिए नहीं थी कि कोई जन्मना-जाति सदा के लिए शासक-शासित, या ऊँच-नीच नहीं होती थी।

वैसे भी, विगत सौ-डेढ़ सौ सालों में दलित समझे जाने वाले लोगों का स्वतंत्र भारत में काफी उत्थान हुआ है। डॉ. अंबेदकर ने ही इसे नोट किया था। तब से साठ वर्ष और बीत चुके, जब दलितों में अनेक लोग देश भर के बड़े-बड़े पदों तथा जीवन के हरेक क्षेत्र में स्थापित होते रहे हैं। यह सब अनदेखा करके अतिरंजित या मनगढ़ंत प्रचार चलाना समाज विरोधी, हानिकारक काम है। अच्छा हो हम अपने सच्चे ज्ञानियों, महान समाजसेवियों के जीवन, कर्म और शिक्षाओं पर ध्यान दें। अन्यथा हर तरह के राजनीतिक प्रचारक अपने-अपने स्वार्थ या अज्ञानवश हमें डुबा देंगे।

– डॉ. शंकर शरण