मुक्तक/दोहा

मुक्तक

 

जब जमाने से हर आस उठ सा गया

अच्छा होने का एहसास उठ सा गया

जब भलाई के बदले न हुआ कुछ भला

तब भलाई से विश्वास उठ सा गया

 

शायद तन्हाईयां ही सबको कबूल है

रिश्तों पे दोस्ती पे जम रही धूल है

ना किसी के लिए है अब वक्त किसी को

अपनी अपनी में दुनिया ये मशगूल है

 

पाने की गंवाने की कोई आस नहीं है

अपनों पे शायद अब विश्वास नहीं है

रिश्ते तो सब वही हैं जो पहले से थे

पर रिश्तों में अब वो मिठास नहीं है

 

मोहब्बत का ये अफसाना बड़ा बेदर्द होता है

दिलों में आग है लगती जो मौसम सर्द होता है

तुझे कहना मैं चाहूं एक दफा सीने से लगाकर ये

तुम्हारे दर्द से मेरे भी दिल में दर्द होता है

 

विक्रम कुमार

मनोरा

वैशाली

 

 

विक्रम कुमार

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