सामाजिक

प्राइवेट जाॅब

प्राइवेट जाॅब

चाय का कप उठाने ही वाला था कि हाथ लगा और कप के भीतर की चाय अपनी सारी मर्यादाओ को तोड़ते हुये फर्श पर जा गिरी। एक ओर प्लेट और दूसरी ओर कप के टुकड़े नजर आने लगे, कानों में कप टूटने की आवाज अभी भी साफ सुनाई दे रही थी फिर अचानक कुछ पलों के लिये सन्नाटा..
पीछे से धर्मपत्नी की आवाज आई कि चाय तो आराम से पी लेते। 23 24 साल हो गये है इस मालिक के साथ, कभी भी देर नहीं हुयी । एक बार देर हो भी जायेगी तो पहाड़ थोड़े ही टूटेगा।
अब पत्नी को क्या कहता कि पिछले दो दिनो से मन व्याकुल सा है। बस यही लगता है कुछ बुरा, बहुत बुरा होने वाला है। पर क्या ? पता नहीं।
अपनी वर्दी पहनी और गाड़ी लेकर चल पड़ा अपने मालिक के घर उन्हे लेने। उस दिन सारे देवी देवता, जीसस और अल्लाह से यही मनाता हुआ कि कहीं देर न हो जाये।
मालिक के बँगले पर पहुँचा तो गार्ड ने बताया कि मालिक तो आज दूसरी गाड़ी लेकर दफ्तर के लिये निकल चुके हैं। मै भी गाड़ी घुमाकर दफ्तर की ओर जाने लगा। रास्ते में कितनी बार हनुमान चालिसा पढी होगी ये तो याद भी नहीं।
आॅफिस पहुँचा तो पता नहीं क्यों पर सभी कुछ बदला बदला सा नज़र आ रहा था। आॅफिस के मैनेजर ने मुझे देखकर कहा “आप आ गये बंशीकाका” चलो ठीक है आप गाड़ी की चाभी आॅफिस में जमा कर दो और 2 3 दिनों में फोन करके आ जाना और अपना हिसाब ले जाना।
क्यों……म…….ग….र…..हु…आ…क्या..?
कुछ नही बंशीकाका। मैनेजर ने बताया कि मालिक ने कहा है कि अब आप बूढे हो गये हो और आपको आराम करना चाहिये। दो चार दिन में जो भी आपने इस महिने 12 13 दिन काम किया है, उसका हिसाब बना देंगे तो आकर ले जाना।
मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या करूँ ? क्या कहूँ ?
आँखों से आँसू ऐसे बाहर आ रहे थे मानो कि कोई सूनामी हो जो अपने साथ मुझे भी बहाकर अनन्त में ले जाना चाहती हो। एक एक करके सारे अपशगुन याद आने लगे जो पिछले 2 3 दिनों से मेरे साथ घट रहे थे। ऐसा कैसे…
पिछले 23 साल की वफादारी और सेवा को एक पल में खत्म…
कुछ तो कारण होगा। मगर क्या…? मै बूढा हो गया, हाँ। सारी जवानी सेवा की और अब.
अब क्या.. कहाँ…कुछ तो…मैं…
बस स्तब्ध होकर सामने पड़ी कुर्सी पर जा बैठा। मन में सवालो का भूचाल थमने का नाम नहीं ले रहा था। कहाँ जाउँगा ? क्या करूँगा ? कौन मेरी मदद करेगा ? और …बुढापा…
मै लेबर कोर्ट जाऊँ, मगर कहूँगा क्या ? न तो मेरी पगार बैंक खाते में आती थी। न हीं कोई पीएफ या ईसीएस पॅालिसी कराई गयी और न हीं कोई नियुक्ति पत्र मिला इस संस्थान से…. कौन मानेंगा और मेरे पास प्रमाण क्या है? कि मै इस संस्थान का कर्मचारी रहा हूँ…एक ना और कहानी खत्म… दिन ढल रहा था पर मै और मेरे सवाल वहीं रूके रहे और इन्तजा़र करते रहे कि क्या होगा…?
“ऐसे एक नही हजा़रों बंशीकाका या कोई सीमा काकी हैं जो अपनी सारी उम्र किसी संस्थान में कार्य करते हुये गुजार देते है और सिर्फ एक ना कहकर उनकी सेवायें समाप्त कर दी जाती हैं। उन्हे वेतन के नाम पर छला जाता है। कैश में 200 रू देकर 2000 का बिल बनाया जाता है। संस्था उनका कोई भी प्रमाण नहीं रखती कि ये लोग संस्था के कर्मचारी हैं। बुढापे के लिये पीएफ, और ईसीएस जैसी सुविधायें जो सरकार कर्मचारियों को देती है वो तो उनके लिये एक सपने से ज्यादा कुछ नहीं। न चाहकर भी ऐसे लोगों से बंधुआ मजदूरों की तरह काम लिया जाता है और सरकार के कुछ विभाग जानकर भी अन्जान बनी हुये हैं। कर्मचारियों को आज भी कैश में एैश का सपना दिखाकर सरकारी टैक्स की करोंड़ो की चोरी फैक्ट्री मालिक बड़े आराम से कर जाते है। कोई है जो इन कर्मचारियों का उद्धार कर सके।

सौरभ दीक्षित “मानस”
9760253965

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,