लघुकथा

सबक

“बाबूजी… आपके बहू का कहना है कि हम अलग रहना चाहते हैं ..।” राघव अपने पिता गोविंद जी से कहा ।
“अच्छी बात है, कब अलग हो रहे हो…?” गोविंद जी अखबार पर नजर गड़ाए ही बोले ।
“आप हमें हमारा हिस्सा दें फिर हम अलग हो जाएँगे ” राघव अपनी सफाई में कहा ।
” ठीक है ..जरा मेरे स्टडी टेबल से नीली डायरी ले आना ।” राघव खुश होकर चल पड़ा । डायरी पकड़ते गोविंद जी बोले ” ठीक है मैं हिसाब करके बताऊँगा, तुम थोड़ी देर बाद आना । राघव जैसा चाहता था वैसा ही हो रहा था । पिताजी बिना कुछ बोले राघव के माँग पूरी करने को तैयार थे । हिस्सा मिलते ही बूढ़े पिता को वृद्धाश्रम  में ले जाने की योजना सफल होने वाली थी ।
“बैठो राघव… बहू को भी बुला लो..।”  आज्ञाकारी बेटा बनते हुए राघव ने पत्नी सुधा को बुलाया । गोविंद जी बोले “यह डायरी उस समय की है जब तुम्हारा जन्म हुआ था और हमारे पास कुछ नहीं था । एक एक रुपया की हिसाब रखनी होती थी । तुम्हारी माँ और मैंने जिंदगी के सबसे कठिन दिनों में भी तुमको खुश रखा खैर ….इन सब से तुम्हें लेना देना नहीं है । मुद्दे की बात यह है कि इस मकान और जमीन की वर्तमान कीमत लगभग बारह लाख होगी और घर के समान कुल साढे तीन लाख उसमें तुम्हारा बाइक भी है और बचपन से लेकर पढ़ाई तक तुम्हारे ऊपर किया गया खर्च लगभग सात लाख के आसपास हो रहे हैं और शादी के लिए लगभग ढाई लाख खर्च हुआ । इस तरह कुल पच्चीस लाख हो रहा है । इसमें और भी खर्चे हैं जैसे तुम्हारे शौक के, खाने-पीने के, कपड़ों के इन सबको छोड़ दिया जाए तो भी बेटा तुम तो खुद ही कर्जदार हो हिस्से कि बात ही मत करो । अब तुम बताओ कर्ज कब तक चुकाओगे..?” राघव और सुधा के ललाट में पसीने छूटने लगे । पैरों से जमीन खिसक गई थी । गोविंद जी ने सही समय पर सही सबक सिखाया था ।

— भानुप्रताप कुंजाम ‘अंशु’