कहानी

पराई औलाद कहानी

पराई औलाद कहानी

“महेश को पता चलेगा तो रमेश को बहुत डांटेगा क्योंकि जब दोनो भाईयों ने गांव छुड़वाया था तो महेश अपनी माँ को अपने साथ ले गया और रमेश मुझे। अभी 3 महिने ही तो हुए हैं, महेश की माँ को गुजरे हुए। रमेश ने मुझे अपने घर से निकाल दिया। नहीं-नही दोनो भाइयों में झगड़ा हो जायेगा। मै कह दूँगा कि दोनो भाई मुझे 6-6 महिने अपने साथ रख लें। महेश तो डाॅक्टर है और रमेश इंजीनियर, दोनो ही अपने-अपने क्षेत्र की नामी हस्ती हैं। रमेश छोटा है उसे समझ कहाँ? महेश समझाएगा तो उसको अपनी भूल का एहसास हो जायेगा।” खुद से ही बातें करते हुए जगदीप जी रेलवे स्टेशन से अपने काँपते पैरों से लाठी के सहारे पैदल ही चले जा रहे थे।

“टिंग-टाँग” डोरबेल बजते ही महेश की पत्नी ने दरवाजा खोला। “अरे बाबूजी आप! आइये, भीतर आइये। रमेश भइया भी आये हैं क्या?” महेश की पत्नी ने अपने सर को साड़ी के पल्लू से ढकते हुए पैर छूकर पूछा।
“नही बहू! अकेला ही आया हूँ। जगदीप जी ने अपने गमछे से पसीना पोछते हुए कहा।
“अरे बाबूजी फोन कर दिया होता मै स्टेशन लेने आ जाती।”
“क्या लेने आती बेटा? अपना चन्दू (चिन्टू) कहाँ है?”
वो तो स्कूल गया है। आप थोड़ा आराम कर लो फिर खाना लगाती हूँ।
हाँ बेटा! महेश कितने बजे आता है?
आज थोड़ा लेट आयेंगें। आप खाना खाकर आराम करिये।
खाना खाकर एक घंटे की नीद लेने के बाद जब जगदीप जी आँख खुली तो स्टील के ग्लास में चिन्टू चाय लिए खड़ा था। चाय एक ओर रखकर चिन्टू अपने दादी जी से लिपट गया।
मेरा बछड़ा! मेरा बेटा। कितना बड़ा हो गया।
दादाजी! चाचू भी आए है क्या?
नही बेटा! जगदीप ने उदास होते हुए कहा
बाबूजी! क्या बात है, कोई खबर नही अचानक? सब ठीक तो है ना?”
पता नही बेटा! पर रमेश मुझे अपने साथ नही रखना चाहता। कह रहा था कि कोई बृद्धाश्रम मे रह लो वहाँ मुझे संगत मिल जाएगी। घर में पड़ा-पड़ा बोर होता रहता हूँ। इसलिए सोचा एक बार तुम लोगों से भी मिल लूँ फिर बृद्धाश्रम में चला जाऊँ।
ऐसे कैसे कर सकते हैं रमेश भइया? जब गाँव छोड़ते समय जिम्मेदारी बाँटने की बात हुई थी तो उसे निभाना चाहिए ना। अम्मा को हम ले आए और आपको रमेश। वो बीच में कैसे अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं। आने दीजिए इनको बात करती हूँ।

शाम को महेश जैसे ही आॅफिस से घर आता उसने जगदीप जी के पैर छुए और चुपचाप अपने कमरे में चला गया। उसके पीछे-पीछे उसकी पत्नी भी कमरे में चली गई।
”जब एक बार बैठकर सारी बातें हो गयी थीं तो बीच में ऐसे बाबूजी को छोड़ना तो गलत है ना।” महेश ने चिढते हुए कहा
अब क्या करोगे? रमेश भइया से बात करोगे?
हाँ और क्या? जब हमने अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाई तो उसे भी तो अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी। और वैसे भी अभी एक और आदमी का खर्च उठाना मुश्किल है। तुम तो समझती हो।
कितना फर्क पड़ेगा महेश! चिन्टू भी अकेला रहता है। जबसे बाबूजी आए है उनके साथ ही चिपका बैठा है।
जो भी हो! बाबूजी को तो रमेश ही रखेगा। मै तो नही।
पर महेश!
“कुछ नही, कल ही मै बाबूजी को लेकर रमेश के घर जाता हूँ। वही बात करूँगा।” ये सारी बातें जगदीप जी बाहर से सुन रहे थे। उन्होने चिन्टू को गले लगाकर पुचकारा और उसके माथे को चूमते हुए कहा
“चाकलेट खाओगे चन्दू (चिन्टू)? तुम रूको मै अभी नीचे से आता हूँ।” कहकर जगदीप जी सीधे स्टेशन की ओर निकल गए। कहाँ जाना है, किस ओर जाना है इस बात से बेफिक्र। उनकी आँखो के सामने वही दृश्य रह-रहकर घूम रहा था जब रमेश ने जन्म लिया था। जगदीप जी ने अपनी छाती चैड़ी करते हुए अपनी पत्नी सरला से कहा था
“ये आ गया मेरा शेर। महेश और रमेश मेरे दो शेर हो गए। ये दोनो मिलकर मेरा नाम रौशन करेंगें।”
“क्या जी? एक बेटी हो जाती तो परिवार पूरा हो जाता।”
नही सरला! बेटी तो शादी करके अपने घर चली जाती हैं पर लड़का तो बुढापे का सहारा होता है। मेरी दो बैसाखियां महेश और रमेश। हा हा हा..तभी पैदल चल रहे जगदीप जी की लाठी के नीचे कुछ आ गया और वो गिर पड़े। उनका चेहरा दर्द से लाल हो गया था। उनके आस पास टूटे विश्वास और बिखरे सपनो के अतिरिक्त कोइ्र्र नही था जो उन्हें उठाकर खड़ा करता। दर्द से कराहते हुए जगदीप जी ने आसमान की ओर देखकर कहा “जानती हो सरला! मेरी दोनो बैसाखियां टूट गईं। अच्छा हुआ तुम पहले ही इस दुनियां से चली गई।” कहकर जगदीप जी सुबककर रो पड़े।

जैसे तैसे जगदीप जी उठकर स्टेशन पहुँचे और जो ट्रेन सामने दिखी उसी पर चढ गए। एक घंटे के सफर में उनके दो शेर बेटों के बाप होने का घमंड रेल की पटरियों के बीच घसिट-घसिट कर खत्म हो चुका था। जगदीप जी कभी मुस्कुराते, कभी उदास हो जाते और कभी अपने गमछे से बहती हुई आँखें पोछते। कभी-कभी एक टक खिड़की के बाहर पीछे छूटते बिजली के खंभों पर टगें बल्बों को देखते और सोचते कि कैसे जरूरत के वक्त इन्हे जलाकर प्रणाम किया जाता है और जरूरत खत्म होते ही बुझा दिया जाता है। रेल के पीछे की ओर दौड़ लगाते गांव के मकानों को देखकर उन्हें अपना गाँव याद आ रहा था। तभी
“टिकट-टिकट!” टीसी की आवाज सुनकर जगदीप जी अपने सपनों की दुनिया को छोड़कर चेतना में लौटे।
“क्या?”
“टिकट दिखाइये बाबूजी!
वो तो मेरे पास नही है।
अरे बाबूजी! आगे मजिस्ट्रेट चेकिंग लगी है। अभी गाड़ी जहाँ रूके वही उतर जाना। नही तो लम्बा फाइन पड़ेगा आप सुपरफास्ट ट्रेन में बैठ गये हो।” कहकर टीसी चला गया।
“उतरना है पर जाना कहाँ?“ जगदीप जी ने खुद से कहा। जैसे की एक हाल्ट पर गाड़ी रूकी वो गाड़ी से उतरकर नीचे आ गये और पैदल की सड़क की तरफ चलने लगे।
“दो शेर बेटे…..नाम रौशन करेंगें….छाती चैड़ी….हा हा हा…शेर बेटे..” यही बार-बार उनके कानों में गूँज रहा था। थोड़ी ही देर बाद घुटनो के बल बैठकर उन्होने अपने घूमते हुए सर को दोनो हाथो से रोकने की नाकाम कोशिश करने लगे और गिरकर बेहोश हो गए।

“आप कौन हो बाबूजी?” सुनकर जब जगदीप जी ने आँखें खोली तो खुद को एक कमरे में पाया।
“मै जगदीप साहू। आप लोग…और मै कहाँ हूँ?”
“अरे दादू जग गए!“ चिया दौड़ते हुए रचना के पास आकर कहने लगी।
“बाबूजी मै रचना हूँ और ये मेरी बेटी चिया। कल शाम आप सड़क के किनारे बेहोश पड़े थे तो हमलोग आपको यहाँ ले आये।”
“अरे रचना! मेरे पर्स कहाँ…?” केशव कमरे में घुसते ही कहते-कहते चुप हो गया।
“अरे बाबूजी! कैसी तबियत है आपकी?” केशव जगदीप जी के पास आकर बोला
अब ज्यादा परेशान मत करो। जल्दी निकलो नही तो आॅफिस के लिए देर हो जाएगी।” रचना ने केशव को पर्स थमाते हुए कहा
ओके बाबूजी! शाम को मिलते हैं।” कहकर केशव चला गया।

“अब मै ठीक हूँ। मुझे चलना चाहिए।” कहकर जगदीप जी लड़खड़ाकर उठने लगे।
“पर बाबूजी! आपको कहाँ जाना है? बता देंगें तो हम आपके घर छोड़ आयेगे।” रचना ने जगदीप जी को सम्भालते हुए कहा
“मम्मा दादू जा रहे हैं क्या?” चिया ने अपनी माँ से चिपकते हुए कहा
“घर, कैसा घर? बृद्धाश्रम ढूढूँगा।
बृद्धाश्रम क्यो? रचना ने चहुँकते हुए पूछा
हा बेटा! बची जिन्दगी बस किसी तरह गुजारनी है।
ऐसा क्या हुआ जो आप ऐसी बातें कर रहे हैं? पूछने पर जगदीप ने अपनी सारी बात विस्तार से रचना को सुना दी।
अच्छा बाबूजी! आपको जाना है तो शाम तक रूक जाइये। केशव से मिलकर चले जाइयेगा।

“देखो मै क्या लाया? रबड़ी!!!” केशव ने आॅफिस बैग को एक ओर रखते हुए कहा।
पापा! केवल मै खाऊँगी और दादू। आप दोनो को थोड़ा-थोड़ा दूँगी।” चिया ने पैकेट पकड़ते हुए कहा।
कैसे हैं बाबूजी?” केशव जगदीप जी के पास बैठते हुए बोला।
बस बेटा! निकलने के लिए तैयार बैठा था। बिटिया बोली कि तुमसे मिलकर जाऊँ।
पता है बाबूजी! मै एक अनाथ था किसी ने पैदा होते ही कचरे में फेंक दिया था। अनाथाश्रम में पला बढा। बड़े होकर अनाथ लड़की रचना से ही शादी की और अब हमारा एक छोटा सा परिवार आपके सामने है।” केशव ने रचना और चिया को गले लगाते हुए कहा

चिया हमेशा पूछती थी कि मेरे दादा-दादी या नाना-नानी नही हैं क्या? कल जब आपको देखा तो चिया के पूछने पर उसको बताया कि यही तुम्हारे दादा जी हैं। तब से चहकर रही है बच्ची। दिन में रचना ने फोन पर आपके बारे में बताया तो सोचा शायद कुछ और दिन मेरी बच्ची अपने दादू के साथ रह लेगी। उसे वो रिश्ता भी मिलेगा जिसे मैने और रचना ने महसूस ही नही किया। रचना ने ही कहा कि मै आपसे यहाँ रूकने के बारे में बात करूँ। बाकी आपकी इच्छा…”
रचना, केशव और जगदीप जी की भीगी आँखें एक दूसरे को देखती रहीं और चिया कभी अपनी माँ, पिता और अपने दादू को बारी-बारी देख रही थी…मानस

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,

One thought on “पराई औलाद कहानी

  • लीला तिवानी

    प्रिय सौरभ भाई जी, अत्यंत मार्मिक कहानी के लिए बधाई. कभी-कभी बिना ढूंढे भी प्यार और अपनापन मिल जाता है.

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