कविता

तुझे ढूंढने निकले

तुझे ढूंढने निकले थे हम और
देखो खुद को खोकर आये हैं
जब जब दूसरों को सम्भाला
तब तब ही हम ठोकर खाये हैं
मंजिल है मगर रास्ता सूझता नहीं
दर्द दिल का कोई मेरे बूझता नहीं
लगा है हर शख्स मुझे जगाने में
क्या किसी को खबर नहीं जमाने में
अरे अभी अभी तो बेवफाई की
नींदों  में हम सोकर आये है
पलकें जल रहीं है या जलाई गई हैं
शायद गर्म तेजाब से नहलाई गई है
उम्मीदों का कोई निशान नहीं
मिलेगा इन कोरी कजरारी आँखों में
अभी अभी तो हम पलकें अपने
खारे अश्कों से धोकर आये हैं
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश