इतिहास

महान राष्ट्रवादी जाट नेता-श्री बच्चू सिंह

(30 नवंबर जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित)

बच्चू सिंह भरतपुर रियासत के राजकुमार थे। भरतपुर के महाराजा किशन सिंह के यहाँ 30 नवंबर 1922 को हुआ हुआ। बच्चू सिंह देशभक्ति, समर्पण , धर्म के प्रति अनुग्रह प्रेरणादायक हैं।

1. बच्चू सिंह एक देशभक्त के रूप में-

उस समय राजपरिवारों के युवकों के लिए ब्रिटिश सरकार की सेना में शामिल होना सामान्य परम्परा थी। इसलिए ब्रिटिश प्रशासन ने भरतपुर के पूरे राजपरिवार को ‘क्षत्रिय’ नामक सैन्य शक्ति में शामिल करने के लिए मनाया। लेकिन बच्चूसिंह की विशेष शारीरिक अक्षमता के कारण उनको थलसेना में भेजना संभव नहीं था, परन्तु उनकी उपेक्षा करना भी असंभव था, इसलिए उन्हें वायुसेना में फ्लाइंग आॅफिसर (पायलट) के रूप में भेजा गया।1943-44 में जब नेताजी सुभाष चन्द्र की आजाद हिन्द फौज द्वारा उत्तर-पूर्व भारत पर आक्रमण किया गया, तो उसकी प्रतिक्रिया में बच्चूसिंह को आजाद हिन्द फौज पर हमला करने के लिए निर्देश दिया गया। किन्तु इसमें बच्चू सिंह ने पूरी बेरुखी दिखायी, क्योंकि वे पूरे मन से देशभक्त थे और अपने ही देशभक्त देशवासियों पर आक्रमण करना उनको उचित नहीं लगा। बच्चू सिंह की बेरुखी से नाराज होकर ब्रिटिश शासन ने बच्चू सिंह को चिढ़ाने के लिए उनके ही एक मित्र फ्लाइंग आॅफिसर राजेन्द्र सिंह को बच्चू सिंह के युद्ध विमान हरिकेन-2 से ही आजाद हिन्द फौज पर हमला करने के लिए भेजा। नाराज बच्चू सिंह ने अपने विमान में खराबी कर दी जिससे हरिकेन-2 सिलचर और इंफाल के बीच दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसमें राजेन्द्र सिंह की मृत्यु हो गई। बच्चू सिंह को इसका दोषी माना गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार हाथ मलती रह गई।

2. 1946 में तलवार विद्रोह और बच्चू सिंह-

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बच्चू सिंह सर छोटूराम के अधीन आर्य समाज, अजगर और क्षत्रिय आंदोलन से जुड़ गए थे, जो पाकिस्तान की मांग, और जन्म आधारित आरक्षण के विरुद्ध था तथा सयुंक्त भारत और केवल जरूरतमंदों के संरक्षण के लिए प्रयासरत था। 1946 के प्रारम्भ में बच्चू सिंह के नेतृत्व में भारतीय वायुसेना में विद्रोह हुआ। कुछ ही दिन बाद 15 फरवरी 1946 तक यह क्रांति सेना के तीनों अंगों में पहुँच गई। इसके साथ ही मुंबई के कोलाबा तट पर संचार पोत HMIS ‘तलवार’ पर तैनात भारतीय मूल के नौसैनिकों ने हड़ताल की सूचना भेजी। ‘तलवार’ पोत पर हड़ताल करने से पहले उन नौसैनिकों ने पोत के कमांडर एफ.सी. किंग से अत्यंत खराब खाने के विरुद्ध शिकायत की थी, किन्तु किंग ने बदतमीजी से कहा था- ‘भिखारी चयन नहीं कर सकते’। तब ‘तलवार’ पोत पर पंजाब के दो सैनिकों सिग्नलमैन मोहम्मद शरीफ खान और पेट्टी ऑफिसर मदन सिंह के नेतृत्व में एक कमेटी बन गई, जिसने विद्रोह का प्रचार शुरू कर दिया। हालांकि बच्चू सिंह की इस क्रांति में आईएनए के झंडे लहराए गए थे; लेकिन तलवार के नेताओं ने कांग्रेस, लीग और कम्युनिस्ट दलों के झंडे लहराए। ‘तलवार’ समुद्र में सिग्नल का एक संचार पोत था। अतः उसके द्वारा दूसरे जहाजों व सैन्य केन्द्रों को सूचना भेजी गई कि क्रांति का केंद्र तलवार पोत है। इसी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ने इसको आरआईएन का विद्रोह घोषित कर उसी के रूप में समर्थन दिया।

अब हड़ताल के पीछे बच्चू सिंह की क्रांति को खत्म कराने के लिए कांग्रेस ने अरुणा आसफ अली को नियुक्त किया। वह हर क्रांति केंद्र पर जाकर सैनिकों को समर्थन देने के बहाने ‘तलवार’ पोत के नेताओं के संपर्क में रहने की अपील करती थी। जिन्ना और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद सैनिकों को विश्वास दिलाते थे कि यदि वे आत्मसमर्पण कर देंगे, तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं होगी और राजनेता उनका साथ देंगे।

24 फरवरी को ‘तलवार’ पोत कमेटी ने हथियार डाल दिए। ‘तलवार’ एक संचार पोत था, अतः इससे हर केंद्र में यह प्रचार हो गया कि हड़ताल खत्म हो गई है; कांग्रेस, लीग, कम्युनिस्ट दलों ने भी हर जगह यह सूचना पहुंचा दी कि हड़ताल वापस ले ली गई है। इससे सभी जगह क्रांतिकारियों का जोश ठंडा पड़ गया और सैनिकों ने हथियार डाल दिये। बाद में इसे ‘तलवार’ पोत पर शुरू हुई हड़ताल बताया गया, जबकि यह ‘तलवार’ पर खत्म हुई थी।
इस तरह विकलांग वीर बच्चू सिंह के नेतृत्व में उभरा यह स्वतन्त्रता संग्राम एक हड़ताल के रूप में समाप्त हो गया।लेकिन इसने ब्रिटिश राज के मन में यह डर बैठा दिया कि यदि अब कोई स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, तो उसे दबाने के लिए न तो सेना होगी, न पुलिस, केवल राजनेताओं का आश्वासन ही होगा। अतः उन्होंने भी अपनी सुरक्षा के लिए भारत को छोड़ने की योजना बना ली। इस प्रकरण के बाद बच्चू सिंह सेना की नौकरी छोड़कर भरतपुर आ गए।

3. स्वाभिमानी और धर्मरक्षक राजनेता के रूप में बच्चू सिंह-

1932 में “कम्यूनल अवार्ड” और “पूना समझौते” के विरुद्ध “क्षत्रिय आंदोलन” के समय सर छोटूराम ने “अजगर” क्षत्रिय आंदोलन चलाया जो केवल विकलांगों, अनाथों, जरूरतमंदों को संरक्षण देता था। छोटूराम यूनियनिस्ट नेता थे, बच्चूसिंह भी इनकी राजनीति के उत्साही समर्थक बन गए थे।
पूना समझौते की 10 वर्षीय अवधि 1942 में समाप्त हुई; किन्तु भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध श्रम-मंत्री भीमराव अंबेडकर के समर्थन में सरकार ने इसे बनाए रखा जिससे आंतरिक विरोध बढ़ने लगा। 1945 में छोटूराम की मृत्यु के बाद उनके आंदोलन का नेतृत्व बच्चूसिंह के पास आ गया। तब उनके नेतृत्व में जन क्रांति से डरकर सरकार ने महाराजा बृजेन्द्र को “क्षत्रिय कर्तव्य” के नाम से बच्चूसिंह को बंगाल के युद्ध क्षेत्र में भेजने के लिए मना लिया; साथ ही उन्हे संतुष्ट करने के लिए पदोन्नत भी किया।

बंगाल में अजगर समुदाय और आर्य समाज नहीं थे; जापान से डरकर ब्रिटिश सरकार पीछे हट गई थी। इस समय जनता को राहत देने की जगह “कृषक प्रजा पार्टी” के भ्रष्टाचार के कारण अकाल फैला हुआ था; सेना भी मुश्किल से राशन प्रबन्ध कर रही थी। बच्चूसिंह इस राजनीतिक रूप से बेहद आहत हुए, किन्तु वे सुभाषचन्द्र बोस के बड़े भाई शरतचंद्र बोस व आईएनए के सहयोगियों से जुड़ गए जिससे उनका राजनीति उत्साह बना रहा। युद्ध के बाद यद्यपि बच्चूसिंह को युद्ध के समय बंगाल में शांति व्यवस्था रखने और जापान आक्रमण को हराने के लिए मेडल दिये गए; तथापि, उन्होने आईएनए के समर्थन से जनवरी 1946 में स्वतन्त्रता क्रांति करवा दी।
राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थों हेतु क्रांति का विरोध कर षडयंत्र से “तलवार” पोत पर उसे फरवरी 1946 में समाप्त करवाने के कारण बच्चुसिंह राजनीतिक दलों से उखड़ गए। सर छोटूराम की मृत्यु के पश्चात और भरतपुर के जाट राजकुमार होने के कारण यूनियनिस्ट पार्टी के अग्रिम नेता बन गए। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन डे के नाम पर सुहरावर्दी के गुंडों ने हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार किया। बच्चू सिंह चाहते थे कि यूनियनिस्ट के नेता इस हिंसा की पुरजोर निंदा करे। मगर सिद्धांत के ऊपर सदा मज़हब को रखने वाले यूनियनिस्ट के मुस्लिम नेताओं द्वारा 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के आयोजित ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ की निंदा करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। 1947 में भी यही पुनरावृति हुई। स्वतन्त्रता के समय एक आंतकवादी संगठन “मजगर” ने पंजाब और सिंध के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में आंतक फैला दिया, यह उनसे जुड़े हिन्दू क्षेत्रों में भी फैल गया। हिन्दू बहुल रियासतों ने अपनी प्रजा को बचाने के लिए केंद्र से सहायता मांगी, मगर नेहरू ने कोई चिंता नहीं की, जिससे अव्यवस्था हो गई।

पंजाब में लाहौर हिन्दू-सिख बहुल क्षेत्र था, जहां लाला लाजपत राय और सर छोटू राम के समर्थक थे, जिससे बच्चूसिंह को सीधा समर्थन मिल रहा था; 1946 क्रांति के समय से लाहौर पर ब्रिटिश प्रशासन की पकड़ खत्म हो गई थी, इसलिए लाहौर पर नियंत्रण केवल मुस्लिम पुलिस अधिकारियों को दिया गया था। इसी आधार पर लाहौर को ज़बरदस्ती पाकिस्तान में मिलवाया गया। इसी से कश्मीर जाने वाला मार्ग पाकिस्तान को मिला।रियासतों को ब्रिटिश संसद ने स्वेच्छा का विकल्प दिया था, परंतु मजगर आंतकवाद से सिंध के पूर्वी क्षेत्र में स्थित रियासतों में संकट हो गया। नेहरू ने उनकी मदद करने में कोई रुचि नहीं दिखाई; अत: रियासतें स्वतंत्र हो गईं, किन्तु साथ ही आंतकवाद से पीड़ित भी हो गईं। इस समय जिन्नाह ने पाकिस्तान सीमा से सटी हिन्दू रियासतों को मदद के बदले पाकिस्तान में मिलने का न्यौता दे दिया। इसी कारण अमरकोट जैसी 80% हिन्दू बहुल रियासत भी पाकिस्तान में शामिल हुई। इसी से सरक्रीक तक पाकिस्तान का कब्जा हो गया।
जोधपुर, बीकानेर आदि बड़ी रियासतों के साथ भी जिन्नाह ने समझौता कर लिया; इस समय भरतपुर के पास भी दो ही मार्ग थे – या तो पाकिस्तान में मिलकर शांति से जागीर या कुछ अधिकार ले लेना, या फिर लड़कर ज़बरदस्ती भारत के साथ मिलना। भरतपुर ने दूसरे मार्ग को अपनाया।
बच्चुसिंह ने अपनी जीप में हथियार लादे और भरतपुर की सेना के साथ मजगर आंतकवादियों पर हमला कर दिया। जहां भी आंतकवादी उत्पात करते, बच्चूसिंह अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच जाते और उनका सफाया करते। नेहरू द्वारा आंतकवाद पर अपनी उपेक्षा करने से आत्मरक्षा के लिए अलवर, धौलपुर, व करौली रियासतें भी भरतपुर के साथ जुड़ गई; इसी के साथ इनका प्रभाव बढ़ने लगा।

अनेक रियासतों का भारत में पटेल के सहयोग से विलय करवाकर बच्चू सिंह ने अखंड भारत के निर्माण में स्मरणीय भूमिका अपनाई। बच्चू सिंह पहले अंग्रेज फिर जिन्ना से लेकर यूनियनिस्ट के मुस्लिम नेताओं और बाद में नेहरू से सदा प्रजा के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे। आजकल कुछ लोग अपने राजनीतिक हितों के लिए जाट-मुस्लिम गठबंधन की बात करते हैं। बच्चू सिंह को जिन्होंने तब धोखा दिया क्या वो आज फिर से नहीं देंगे?

— गुरप्रीत चहल