धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

युवाओं के आदर्श भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्री कृष्ण का सारा जीवन प्रेरणाओं से भरा है। उन्होंने धर्म और सत्य की स्थापना के लिए जीवन भर संघर्ष किया। युवाओं के लिए उनका जीवन आदर्श है। उन्होंने अपने जीवन का स्वर्णिम काल राष्ट्र के समुत्कर्ष में लगाया। भगवान कृष्ण की कारागार से जंगल तक की यात्रा में जीवन जीने के अनेक सूत्र मिलते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण एक राजनीतिक, आध्यात्मिक और योद्धा ही नहीं थे वे हर तरह की विद्याओं में पारंगत थे। भगवान श्रीकृष्ण से धर्म का एक नया रूप और संघ शुरू होता है। श्रीकृष्ण ने धर्म, राजनीति, समाज और नीति-नियमों को नया आयाम दिया। योग और युद्ध विद्या में वे पारंगत थे।
भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। द्वारिका को उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया और वहीं रहने लगे थे। भगवान श्रीकृष्ण 64 कलाओं में दक्ष थे। एक ओर वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर वे द्वंद्व युद्ध में भी माहिर थे। इसके अलावा उनके पास कई अस्त्र और शस्त्र थे। उनके धनुष का नाम ‘सारंग’ था। उनके खड्ग का नाम ‘नंदक’, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजञ्य था, जो गुलाबी रंग का था। श्रीकृष्ण के पास जो रथ था उसका नाम जैत्र दूसरे का नाम गरुढ़ध्वज था। उनके सारथी का नाम दारुक था और उनके अश्वों का नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक था।
वह गौपालक के साथ प्रकृति प्रेमी भी हैं। वह ब्रजवासियों को गोवर्धनपर्वत के संरक्षण के लिए कहते हैं। वह ग्वाल बालों का साथ लेकर अत्याचारी रावण का वध करते हैं तो वहीं पाण्डवों का राज्य वापस करने के लिए कौरवों के पास शांतिदूत बनकर उन्हें समझाने भी जाते हैं। नहीं मानने पर महाभारत भी रचते हैं। कुरूक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में अपने सामने जब अर्जुन सगे संबंधियों को खड़े देखता है तो उसके हाथ कांप उठते हैं तब श्रीकृष्ण अर्जुन को विराट स्वरूप का दर्शन कराने के बाद कहते हैं अर्जुन तुम तो निमित्त मात्र हो। अर्जुन को गीता का संदेश दिया। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को भगवद् गीता का जो उपदेश दिया था। वह तिथि मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी थी। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से प्रसिद्ध है। गीता का चिंतन अज्ञानता के आवरण को हटाकर आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता में जीवन जीने की कला के बारे में बताया गया है। गीता मनुष्य का परिचय जीवन की वास्तविकता से कराकर बिना स्वार्थ कर्म करने के लए प्रेरित करती है. गीता अज्ञान, दुख, मोह, क्रोध,काम और लोभ जैसी सांसारिक चीजों से मुक्ति का मार्ग बताती है।
गीता पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है। गीता पर करीब विभिन्न भाषाओं में एक हजार से ऊपर टीकाएं लिखी जा चुकी हैं। गीता अनुभूति का ग्रंथ है और इसके सार तत्व को अपनाना हमारी जिम्मेदारी है। गीता पढ़ने का नहीं बल्कि गीता को पढ़कर जीवन में आचरित करने की आवश्यकता है। स्वयं के लिए इच्छा न रखते हुए सब प्रकार के स्वार्थों से ऊपर उठकर दुनिया के हित में कर्तव्य पूरा करना गीता का संदेश है। गीता के इस भाव को अगर मानव आत्मसात कर लेगा तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी। मनुष्य को स्वार्थ भटकाता है इसलिए सांसारिक जीवन व्यतीत करते हुए संसार से ऊपर रहने की कला गीता सिखाती है। समाज को गीता का संदेश प्रत्यक्ष रूप से जीवन में उतारना होगा। गीता कर्त्व्य निष्ठा से लेकर उत्कृष्ट जीवन जीने की प्रेरणा देती है। बिना परिणाम की चिंता किए कर्म करना ही गीता का सिद्धांत है।
समस्या सामने आने पर पीठ नहीं दिखाना, यह भगवद्गगीता की पहली सीख है। गीता को जन-जन तक पहुंचाना होगा। संघ के सरसंघचालक के मुताबिक अगर भगवद गीता घर-घर तक पहुंचे और उसका सच्चे अर्थों में आचरण हो तो भारत आज की तुलना में सौ गुना सामर्थ्य के साथ विश्वगुरु के रूप में सामने आ सकता है।
“व्यक्ति को जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए, इसका निर्देशन भगवद् गीता करती है। इसलिए गीता का अध्ययन और आचरण महत्त्वपूर्ण है। भगवद गीता को सब तक पहुंचाने का प्रयास करना आवश्यक है। भारत को राष्ट्र के रूप में उभरने के लिए गीता के मार्ग पर चलना होगा। यह कार्य किसी भी व्यक्ति, संगठन या राजनीतिक दल का नहीं, बल्कि समाज का है। समाज गीता का आचरण सच्चे अर्थों में जब करेगा, तभी यह अपेक्षित राष्ट्र उभरकर आएगा”
उपभोग की बजाय त्याग और संयम तथा सात्विक सुख का मार्ग गीता बताती है। महाभारत से पूर्व और उसके बाद की सभी विचारधाराओं का सार संग्रह गीता में मिलता है। इतना ही नहीं बल्कि अन्यान्य पंथों की मान्यताओं का प्रतिबिंब भी उसमें मिलता है। फिर चाहे उनकी पूजा पद्धति अलग ही क्यों न हो। यही गीता का सामर्थ्य है। गीतोक्त धर्म को हम गीताधर्म कहते हैं, लेकिन वास्तव में वह विश्वधर्म है और शाश्वत, सनातन धर्म है। गीता का उद्देश्य लोकसंग्रह है, यह गीता का एक और महत्वपूर्ण पाठ है। अपने प्राणों की रक्षा के लिए भी धर्म नहीं छोड़ना चाहिए, जो धर्म के लिए जीता है वह देश के लिए जीता है। यह संदेश कुरूक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया।
गीता दुनिया का एक प्राचीनतम ग्रंथ है। गीता में 18 अध्याय व 700 श्लोक हैं। गीता का दुनिया की सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। गीता मनुष्य को पलायन से पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। पश्चिमी विद्वानों ने भी गीता के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा सीखी। गीता में कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग पर भगवान कृष्ण के उपदेश हैं। सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते हुए कर्म करो फल की चिंता न करो। धर्म की स्थापना के लिए वह विश्व भर के अधर्मी राजाओं का सर्वनाश करवाते हैं। अपने जीवन में उन्होंने तमाम राजाओं को पराजित किया लेकिन वे स्वयं राजा नहीं बने बल्कि जिसका हक था उसे गद्दी सौंपी। मथुरा के राजा कंस को हराकर श्रीकृष्ण राजा नहीं बने बल्कि उग्रसेन को राजा बनाया।
उग्रसेन जी की इच्छा राज्य करने की नहीं थी किन्तु श्रीकृष्ण के आग्रह को वे टाल नहीं सकते थे। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज! मैं आपका सेवक होकर आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। द्वारका का ऐश्वर्य अकल्पनीय था। देवराज इन्द्र भी महाराज के चरणों में प्रणाम करते थे। त्रिभुवन के स्वामी मधुसूदन जिनको प्रणाम करें, जिनसे आज्ञा मांगें, उनसे श्रेष्ठ और कौन हो सकता हैं? परन्तु कभी भी महाराज उग्रसेन को अपने प्रभाव, ऐश्वर्य या सम्पति का गर्व नहीं आया। वे तो श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही सिंहासन पर बैठते थे। अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को उन्होंने समर्पित कर दिया था। श्रीकृष्ण की इच्छा पूर्ण हो, केशव संतुष्ट रहें, इसी के लिये उग्रसेन जी सब कार्य करते थे। सेवा की वे प्रतिमूर्ति थे। उनकी दृष्टि में कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के पैर धोने और जूठी पत्तल उठाने का कार्य स्वयं अपने जिम्मे लिया था।
— बृजनन्दन राजू

बृज नन्दन यादव

संवाददाता, हिंदुस्थान समाचार