कविता

घर की बिटिया!

घर की बिटिया, रही सिसकती, हैं मंत्री, नेता मस्त यहां।
नोच रहे हैं जिस्म भेड़िए, सब के सब हैं व्यस्त यहां।।
आन बचा ना सके, जो घर की, लंबे भाषण झोंक रहें।
बनकर दर्शक, तुम, ना मर्दों ! सुनकर ताली ठोक रहे।।

क्या बची ना ताकत संविधान में,घर की लाज बचाने को।
निपटारा हो तुरंत यहां,क्यो देरी है,फास्ट कोर्ट लगाने को।।
क्यों हैं हबसी,बेखौफ यहां इतने,खुलकर इज्जत लूट रहे।
बनकर कुत्ते और भेड़िए, हर लड़की पर टूट रहे।।
काट रहे, बेख़ौफ लड़कियां, मर्यादा सारी तोड़ रहे।
देख अकेला जिस्म मान बस, हवस मिटाने दौड़ रहे।।

कौन है जिम्मेदार यहां अब,? किसको दोषी ठहराए।?
शर्मसार है, मां वसुंधरा, झंडा कैसे फहराएँ।।
बेझिझक यू लुटती देख आबरू, बूत बनी हर मात खड़ी।
कलतक थी जो,सुंदर चंचल,अधजलीबनी वह लाश पड़ी।।
जाने किसने, नित नई, यह बेदर्दी की रीत गढ़ी।
हब्शी शैतानों की जैसे, एक नई है नस्ल बड़ी।।

क्या नहीं है ऐसा कोई भी,? जो कुचले इन हैवानो को।
बैठे हैं सब मौन साध कर, हो रहा दर्द ना कानों को।।
ना बचेगा कोई आंगन, हर बेटी चीखेगी शोर मचाएगी।
हर आंगन में दहशत छाएगी, अस्मिता नहीं बच पाएगी ।।

— दीपक्रांति