सामाजिक

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन वैसी

तुलसीदास जी की चौपाई की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं , जिन पर काफी कुछ लिखा जा सकता है । इन पंक्तियों का अर्थ हुआ कि किसी भी चीज़ के प्रति मनुष्य की जो भावना होती या वह उसे चाहे किसी रूप में दिखे या उसकी अंतर्दृष्टि उसे जो आदेश देती है , तो वह उसे वैसी ही नज़र आने लगती है । यहाँ वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो जाता है । इस तरह अगर वह पत्थर में ही भगवान का रूप देखता है तो वह उसे ही भगवान मानने लगता है । ऐसी भावना या कल्पना से वह असली भगवान को भूल अंधविश्वासों में फँस जाता है और अनेकानेक कष्ट उठाता है । भगवान भी तो अपने भक्तों को देखता है कि किसमें कितनी निष्ठा है , कौन कितना समर्पित है व वह परीक्षा भी लेता है । जो भक्त भगवान को दिल में बसाये रखता है , वह अपने भावात्मक लगाव में खरा उतरता है । जिसने हमें बनाया , उसे उसी रूप में देखना श्रेयस्कर है । वही हमें कष्टों से उबारकर हमारी नैया पार लगाते हैं ।
तुलसीदास जी ने संभवत: अनुभूत विचारों को ही प्रकट किया है । हम प्रभु को पूजते हैं , तो हम किसी मूरत , तस्वीर या कैलेण्डर आदि की प्रकाशित फोटो को साधते हैं व उस छवि को हम आँखों में बसा कर दिल में स्थापित कर लेते हैं और उसी के अनुरूप हम प्रभु को मान लेते हैं । सच पूछा जाये तो भगवान को किसी ने भी नहीं देखा , फिर भी सदियों से चली आ रहीं पारंपरिक तस्वीरों के आधार पर कैलेण्डरों , दीवारों व मंदिरों की दीवारों पर लोग प्रभु की छवियाँ अंकित करते गये जो हमारे , आपके व सबके दिलों में अंकित होती चली गयीं व आँखों में उतरती गयीं । लोगों को यदि पत्थर में भगवान नज़र आते हैं तो वे उसी को पूजने लगते हैं व भावनात्मक रूप से उससे जुड़ जाते हैं । मनुष्य किसी भी दुख का भाव नहीं चाहता , फिर भी वह दुखी हो जाता है । अग्नि को हम यदि पानी मान लें और उसमें हाथ डालें तो हमारा हाथ ही जल जाएगा । इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि हमें मिथ्या के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए । हमें सत्य को सत्य व मिथ्या को मिथ्या मानना चाहिए । मंदिर में स्थापित मूर्ति के प्रति हमारे भाव उजागर होते हैं, न कि रास्ते के किसी भी पत्थर के प्रति ।
इस संबंध में मैं अपने ही उदाहरण देना चाहूँगी । कई बार सब्ज़ियाँ या प्याज काटते हुये या रोटी तोड़ते हुये कुछ टुकड़े अलग – अलग डिज़ाइन के बन जाते हैं कि कभी उनमें चिड़िया , बत्तख , मछली आदि नज़र आने लगते हैं । एक बार अदरक काटने पर वह कुत्ते के रूप में नज़र आया । एक बार आँख के नीचे पाउडर लगाने के लिए मेज़ पर थोड़ा – सा छिड़का तो वह ओम की शक्ल का दृष्टिगोचर हुआ । पोचे का कपड़ा नीचे फैलाया तो वह उड़ते पंछी की तरह नज़र आया । यह सब मुझे इस रूप में नज़र क्योँ आये ? स्पष्ट है कि उन्हें देख मेरी भावना वैसी बन गयी थी । नज़रों ने उन्हें विश्वास के आईने में देखा था व उन पर दृष्टिपात करने से वैसी धारणा व भावना बन गयी थी । मैंने इन सबकी तस्वीरें खींच कर रखी हैं ।
हम सुनी – सुनाई बात पर यदि किसी के बारे में कोई धारणा बना लेते हैं , तो वह हमें वैसे ही नज़र आने लगता है । असलियत तो उससे संपर्क में आने पर ही खुलती है ।
बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी एक कौवे की , जिसमें एक हलवाई ने एक कौवे को दही में चोंच मारने पर एक पत्थर मारा तो वह उसे लग गया तो कौवा मर गया । तभी वहाँ एक कवि आया, उसने दीवार पर लिख दिया — काग दही पर जान गँवायो
तभी वहाँ पर कागजों की हेरा – फेरी के कारण निलंबित हुआ एक लेखपाल आया तो उसने अपनी भावना से उसे पढ़ा कि — कागद ही पर जान गँवायो
उसे काग दही की जगह कागद ही पर लगा । थोड़ी देर में मजनूँ – सा दिखता एक लड़का लड़की के कारण पिट कर आया तो उसने पढ़कर कहा , ठीक ही लिखा है । उसने उसे पढ़ा — का गदही पर जान गँवायो
जिन हालातों में वे थे या उनकी भावना थी , उन्हें सब वैसा ही दिखाई दिया । इसी तरह द्रोणाचार्य की परीक्षा में चिड़िया व ऊपर लटकती मछली की केवल आँख दिखाई देने के कारण ही तो अर्जुन परीक्षा में सफल हुये थे । वहाँ वह भावुक नहीं थे । लक्ष्य साधने की ही भावना प्रधान थी । एकलव्य को भी द्रोणाचार्य की मूर्ति में द्रोणाचार्य ही दिखाई दिये थे । मीरा ने कृष्ण को पति रूप में देख साधना की । भक्ति – भावना में वह जीवन पर्यंत कृष्ण की होकर रह गयी थी । कंस मामा को अपनी कलुषित भावना के कारण कृष्ण हमेशा दुश्मन के रूप में ही नज़र आया । कृष्ण ने दोस्ती में कभी भी सुदामा को गरीब न समझा । अपनी पवित्र भावनाओं से सदा उसे एक सच्चा मित्र माना । इन बातों से निष्कर्ष यही निकल सकता है कि हमें अपने अंतर का निरीक्षण व मंथन करना चाहिए , व्यर्थ की धारणा या भावना स्थापित नहीं करनी चाहिए ।
अत: इससे यह साबित होता है कि जाकि रही भावना जैसी , प्रभु देखी मूरत तिन तैसी ।

— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘