लघुकथा

दहलीज

मैं आराम से एक कुशन गोदी में रखे हुए, मम्मी जी को मशीन पर काम करते हुए देख रही थी। चश्में के अंदर से झांकती दो अनुभवी आंखें, बड़े ही मनोयोग से एकदम सीधा टांका लेती हुई मशीन की धड़- धड़ करती हुई आवाज़ के साथ ही कपड़े को सुंदर आकर देती जा रहीं थी।
अचानक पापाजी कमरे से निकल कर हॉल में आकर मम्मी जी से मुख़ातिब होते हुए बोले, “मैं थोड़ा घूम आता हूँ व सब्जी भी ले आऊंगा — तुम साथ चलोगी क्या मेरे ?
मम्मी जी पूरे मनोयोग से सिलाई में व्यस्त, बोलीं “नहीं जी, आप ही ले आइए, मुझे आज कुशन के लिए नई डिज़ाइन के कवर सिलने हैं।”
मशीन का टांका न इधर न उधर, नई डिजाइन बनाता हुआ एम्ब्रॉइडरी का काम भी अद्भुत कला के साथ निखर कर आ रहा था।
मेरी शादी हुए ६ महीने हो चुके थे — मैं हमेशा देखती कि पापाजी का हर वक़्त बाहर जाते हुए पूछना और मम्मी जी का मना कर देना, मुझे आश्चर्य से भर देता। घर या समाज से सम्बंधित, छोटी-मोटी बातें हों, पापाजी पूछ कर ही करते थे।
मैं सोचती, “जब मम्मी जी को जाना ही नहीं होता तब क्यों बार-बार पापाजी पीछे पड़े रहते हैं,और हर छोटे-छोटे काम क्या पापाजी खुद नहीं कर सकते?”
मेरी जिज्ञासा को मिटाने के लिए मैंने उन्हें चाय का ऑफर दे डाला, “पापाजी चाय पीएंगे क्या? मेरे व मम्मी जी के लिए बनाकर ला रही हूँ।”
“अरे बेटा, तूने तो मुंह की बात छीन ली, जा बना ला, अब तो मैं चाय पीकर ही जाऊंगा।” कहते हुए पापाजी वहीं सोफे पर बैठ गए।
चाय पीते हुए मेरी जिज्ञासा के कुलबुलाते कीड़े को शांत करने के उद्देश्य से मैंने पापाजी से पूछ ही लिया।
पापाजी ने हौले से मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, जब तुम्हारी माँ ने इस ‘दहलीज़’ (घर की दहलीज़ की तरफ इशारा करते हुए ) में चावल से भरे कलश को घर में बिखेरते हुए पहला कदम रखा था, उसी दिन से मानो मेरा जीवन खुशियों से भर गया था। तब से लेकर आज तक तेरी माँ ने अपनी ज़िंदगी हवन कर दी इस दहलीज़ के अंदर रहने वालों की खुशियों के लिए। पहले मैं भी जाने-अनजाने कई बार उसकी भावनाएं आहत कर देता था लेकिन वह अपनी आँखों के कोरों पर ही आँसू रोक लेती थी। इतने में ही मैंने देखा कि मशीन की सुई उनकी अंगुली में चुभ गई व फटाक से वह अंगुली मम्मी जी के मुंह में थी। पापा का कहना जारी था, बेटा फिर मुझे एहसास हुआ कि जो मेरे पीछे,आंख बंद करके एक विश्वास के साथ आई है उसके जीवन में खुशियां भरना भी मेरा ही दायित्व है।
“मैं तो ऑफिस, यार-दोस्तों के साथ गाहे-बगाहे मस्ती मार ही लेता हूँ। इसीलिए मैंने नियम बना रखा है कि जिस तरह तुम्हारी माँ ने हमारे जीवन में खुशियों के रंग बिखेरें हैं वैसे ही मैं भी उसको वह सब दे सकूं जिसकी वह हक़दार है।”
एक गहरी सांस लेते हुए पापाजी ने आगे कहा, “और मेंरा व्यवहार कभी भी स्वच्छंद न हो जाए, इस हेतु तुम्हारी माँ से सलाह- मशविरा करके ही मैं हर काम करता हूँ। ”
तब तक मैंने देखा कि मम्मी जी की सुंदर डिज़ाइन वाला कुशन-कवर मेरे हाथों में आ चुका था, कुशन पर चढ़ाने के लिए। आज मैं भी उस दहलीज़ का एक हिस्सा थी।

— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

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