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उन दिनों की बात

साथियों ! नमस्कार ! नेहा जी के अनुरोध पर विचार करते हुए यह तय किया कि कुछ मैं भी लिख दूँ । हालाँकि यह दिए गए विषय से कोसों दूर है लेकिन फिर भी लिखने का मकसद है कि नई पीढ़ी के लोगों को उन दिनों की सामाजिक मर्यादा , शुचिता व परंपराओं के बारे में संक्षेप में बताया जा सके ।
मेरे संस्मरण से यह न समझा जाए कि उन दिनों प्रेम नाम की चीज समाज में व्याप्त नहीं थी । प्रेम तो शायद मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौजूद रहा है अपने अलग अलग स्वरूपों में । प्रेमी प्रेमिका तब भी नजर आ जाते थे गाहेबगाहे लेकिन एक मर्यादा के आवरण में । सिनेमा के पर्दों पर भी नायक नायिका के मिलन को दो फूलों को मिलाकर दिखाया जाता था ,बाद में नायक नायिका को पेड़ के पीछे छिपा दिया जाता था और दर्शक समझ जाते थे कि दोनों गले मिल रहे हैं । कहने का तात्पर्य यह कि प्रेम का वजूद हमेशा से रहा है , उसका अहसास हमेशा रहा है । तब दर्शक मात्र फूलों के मिलने से ही नायक नायिका के मिलन का अहसास कर लेते थे लेकिन आज …..??
लेकिन सिनेमा आज भी गलत नहीं हैं ! सिनेमा साहित्य का ही एक रूप है जिसमें समाज का ही अक्स दिखाया जाता है और आज प्रेम के नाम पर समाज में वो फुहड़ता और अश्लीलता फैल गई है जिसे परिवार के साथ बैठकर देखा भी नहीं जा सकता । ये मात्र सिनेमा के पर्दे तक ही सीमित नहीं है । यदि आप किसी महानगर में हैं और यात्रा कर रहे हैं किसी सार्वजनिक माध्यम से तो आपके खुलेआम ऐसे दृश्य देखने को मिल जाएंगे जिन्हें देखकर एक संभ्रांत इंसान का सिर अवश्य शर्म से झुक जाएगा । कुछ लोग इस जीवंत प्रेम प्रसारण का आनंद भी लेते देखे गए हैं । पार्कों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर तो अब यह आम बात हो गई है । खैर यह आज का विषय नहीं है । तो आते हैं अब मुख्य मुद्दे पर !
जिस कालखंड में और जिस परिवेश में हम धरा पर अवतरित हुए उस समय हम तो प्रेम नाम के शब्द से ही अनभिज्ञ थे । कई फिल्मों में प्रेम कहानियाँ देखना अच्छा लगता था । उन दिनों राजेश खन्ना का जमाना था तो उनकी दो रास्ते , आप की कसम , रोटी , आराधना , हाथी मेरे साथी जैसी कुछ फिल्में देखी थीं और अच्छी भी लगी लेकिन तब हम सिर्फ इतना ही समझ पाए थे ये सारी आसमानी बातें हैं यानी हवाहवाई , मनगढ़ंत ! असल में प्यार क्या चीज होता है इससे अनभिज्ञ हम स्कूल की पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में पहुँच गए । स्कूल में भी लड़के लड़कियाँ साथ ही होते थे , एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी महसूस होता था लेकिन कभी किसीने एक दूसरे से हाय हेल्लो भी नहीं किया ।
कॉलेज में अलबत्ता हमने कुछ लडके लड़कियों को कॉलेज परिसर के बाहर आइसक्रीम खाते , घूमते अवश्य देखा लेकिन ईश्वर कृपा से हमें यह सब कभी रास नहीं आया ।
एक दिन दोपहर में कॉलेज से घर पहुँचे तो दो अपरिचित महानुभाव घर में बैठे दिखे । वह शायद दिसंबर 1983 की कोई तारीख थी । स्वभाव के अनुसार उनका अभिवादन कर कपड़े बदल मैं दुकान पर चला गया । न उन लोगों ने कुछ पूछा और न मैंने कोई बात की । अनजान लोगों से बात करने में मैं शुरू से ही कंजूस रहा हूँ । 😊
इस घटना के लगभग पंद्रह दिन बाद पिताजी को माँ से कहते हुए सुना ” लडकी बहुत अच्छी है , एकदम अपने बाबू जैसी ! ”  तब कहीं समझ में आया लगता है उस दिन वो दोनों महानुभाव मुझे देखने आए थे । खैर अंदर ही अंदर बड़े लोगों में क्या बात हुई क्या नहीं , कुछ नहीं पता ,बस तारीख याद है कि 26 जनवरी 1984 को आजादी के दिन विधिवत तिलक समारोह का आयोजन करके धूमधाम से मेरी आजादी छीन लिए जाने की औपचारिक घोषणा कर दी गई ।
इस घोषणा के मुताबिक 8 मई 1984 को विधिवत गणमान्य लोगों , रिश्तेदारों व अपनों की उपस्थिति में अग्नि को साक्षी मानकर हमें हमेशा हमेशा के सामाजिक मर्यादा की बेड़ियों में जकड़ दिया गया । रात भर चले वैवाहिक कार्यक्रम में 14 साल की मासूम सी अबोध दुल्हन कई बार नींद में लुढ़क कर मेरे ऊपर गिर पड़ी थी लेकिन हर बार तुरंत ही संभल भी जाती । नींद के इस आलम में भी मजाल था जो एक हाथ लंबा घूँघट सरक जाए । लिहाजा मुखदर्शन के बिना ही सभी रस्मोरिवाज सम्पन्न हुए । एक दिन बारात रुककर विवाह के दूसरे दिन रात हम दुल्हन के साथ घर पहुँचे । घर में प्रवेश करने की औपचारिकता पूरी करते ही हमें भगा दिया गया ” अब यहां क्या कर रहा है औरतों में । जा बाहर जा ! ”  किसी बुजुर्ग महिला ने कहा तो वहाँ से भागने के अलावा और कोई विकल्प था भी नहीं । दूसरे दिन दिन भर कुलदेवता व मंदिर में देवदर्शन के प्रोग्राम चलते रहे ! महिला रिश्तेदारों की सुरक्षा में दुल्हन महफूज रही और हम अब तक मुख दर्शन से बहुत दूर ! तीसरा दिन भी इसी तरह बिता । हालाँकि यह धृष्टता नहीं कही जाएगी लेकिन अंजाने में ही हम दोपहर घर में घुस गए किसी काम से जो अब याद नहीं आ रहा ! सामने ही इनको खटिये पे बेसुध सोए देखकर लगा आज मुखदर्शन हो ही जाएगा  लेकिन अभी तो दिल्ली दूर थी । घूंघट को अच्छी तरह चेहरे पर इन्होंने कस के इस तरह लपेटा था कि नजदीक ही चल रहे तेज टेबल फैन की हवा भी उसे नहीं उड़ा पा रही थी । नजदीक ही बुआ , दादी , माँ और अन्य कई बुजुर्ग महिलाओं की मौजूदगी में सीधे देखने की हिमाकत भी नहीं कर सकता था सो मुखदर्शन से अभी भी वंचित ही रहा ।
रात हुई । मैं बाहर के कमरे में अपने सोने की तैयारी करने लगा तभी मामी पास आई और बोली ” बबुआ ! इहाँ काहैं सोने जा रहे हो । जाओ उ अंदर के कमरे में । ” थोड़ी नानुकुर के बाद हम पहुँचे अंदर के कमरे में जहाँ ये पहले से मौजूद थीं लेकिन हमें छोड़कर मामी जी जैसे ही बाहर जाने के लिए निकलीं ये उन्हें पकड़कर झूल गईं ” मामीजी ! आप भी यहीं सो जाइए न । बहुत जगह तो है इस कमरे में ! ” और हम कभी मामी जी और कभी घूंघट में छिपी अपनी दुल्हन को देखते रहे । खैर काफी मानमनुहार के बाद इन्होंने एक शर्त पर मामी को जाने की इजाजत दी कि ‘  कमरे का दरवाजा बंद नहीं होगा । बंद दरवाजे में मुझे घुटन होती है । ‘
खैर मामी के जाने के बाद दरवाजा खुला ही रहा और जैसे ही इनकी तरफ पलटकर देखा ये पलंग पर दूसरी तरफ करवट बदल कर खर्राटे भरने का अभिनय कर रही थीं । शायद अभिनय ही था क्योंकि अँधेरे में मेरे पैर से ठोकर लगकर कुछ गिरा और ये तुरंत ही चौंककर उठ खड़ी हुईं और उसी क्षण पूर्णिमा के चाँद जैसा गोरा मुखड़ा अँधेरे में भी चमक उठा । यह था अपनी अर्धांगिनी का प्रथम मुखदर्शन ! लेकिन उसके बाद की स्थिति भी कोई सुखद नहीं रही । पलंग के दोनों किनारों पर सोए हम दोनों के बीच एक और आदमी सोने भर की पर्याप्त जगह थी और इसी तरह तीन दिन और बितने के बाद एक दिन इनके मायके वाले आये और दुल्हन की बिदाई हो गई । इन छह दिनों में ठीक से सूरत भी नहीं देखी । ठीक एक साल बाद जिसे गौना कहते हैं वह समय आया और तब से आज तक हमें साथ रहते हुए लगभग 35 साल हो गए हैं लेकिन शायद कोई यकीन न करे आज तक हमारे बीच आपस में तकरार नहीं हुई । अक्सर इन्होंने मेरी आदतों को अपनी आदत बना डाला या फिर समझौता कर लिया । कई बार उनकी भावनाओं का कद्र कर उनकी नाराजगी का अहसास कर मैं स्वयँ खामोश रहा और नाराज नहीं होने दिया । कभी दब गया कभी दबा दिया , इसी तरह चल रही है हमारी गृहस्थी की गाड़ी !😊
तो ये थी हमारी उन दिनों की कहानी ! आपको कैसी लगी अवश्य बताइयेगा !

 

On Mon,

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।