धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

बलवान मनुष्य एवं संगठित समुदाय ही सुरक्षित रह सकते हैं

ओ३म्

परमात्मा ने जीवात्माओं को स्त्री या पुरुष में से एक प्राणी बनाया है। हम सामाजिक प्राणी हैं। हम समाज में अकेले नहीं रह सकते। परिवार में माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, बच्चे व अन्य कुटुम्बी-जन होते हैं। परिवार समाज की एक इकाई होता है। परिवार प्रायः संगठित ही होता है। जो परिवार विचारों एवं भावनाओं की दृष्टि से जितना अधिक संगठित होगा वह उतना ही सुरक्षित एवं उन्नति करता है। यदि हमारा परिवार, समाज और देश एक विचारों वाला नहीं है तो उसका संगठित होना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में वह समाज देश सर्वथा सुरक्षित नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति, समाज, संगठन व सम्प्रदाय कभी किसी भी कारण से हम व हमारे स्वजातीय बन्धुओं पर अकारण व किन्हीं स्वार्थों से प्रेरित होकर आक्रमण कर सकता है और असंगठन की स्थिति में हम उन संगठित अपराधियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते। हमने पाकिस्तान बनने पर पाकिस्तान में रहने वाले अपने भाईयों पर हिंसा की अमानवीय निन्दित घटनाओं को सुना व पढ़ा हैं जहां हमारे लाखों निर्दोष धर्म-बन्धु हिंसा की भेंट चढ़ा दिये गये थे। यहां तक की दरिन्दों ने स्त्रियों व बच्चों पर ही दया नहीं की थी। वह यह भूल गये थे व भूल चुके हैं कि उनके पूर्वज भी कभी आर्य व हिन्दू थे। तलवार की जोर पर उनके पूर्वजों का विगत लगभग एक हजार वर्षों में धर्मान्तरण किया गया था। कश्मीर में हमारे कश्मीरी पण्डित भाईयों के साथ भी जो हैवानियत का व्यवहार किया गया उसकी पीड़ा को तो हमारे कश्मीरी भाई ही भली-भांति समझ व अनुभव कर सकते हैं। हम उनके दुःखों का पूरा पूरा अनुमान व अनुभव नहीं कर सकते। आश्चर्य है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों ने भी इन घटनाओं पर न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया। वह सत्ता प्राप्ति व सत्ता को बचाने के लिये ऐसे कृत्यों की भत्र्सना तक नहीं कर पाते। यदि ऐसा ही व्यवहार किसी अन्य समुदाय के किसी एक व्यक्ति से भी हुआ होता तो जो लोग मौन रहे वह हाय-तोबा मचा कर आकाश पाताल एक कर देते।

अतः अन्याय व अत्याचार से बचने के लिये प्रत्येक भारतीय व वैदिक धर्मी को प्रमाद छोड़कर अपने शेष बन्धुओं के साथ संगठित होना होगा। हम सबका यह प्रयास होना चाहिये कि हमारी विचारधारा के किसी बन्धु पर भी संकट आता है तो हम सबको उसकी पीड़ा व तड़फ होनी चाहिये जैसे वह घटना हमारे साथ ही घटी हो। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आने वाले समय में हम सुरक्षित नहीं रह सकते। हमें किसी को हानि पहुंचाने के लिये संगठित नहीं होना है अपितु अपनी अपने परिवारों सहित अपने बन्धुओं, परिवारों समुदाय की रक्षा के लिये संगठित होना है। आठवी शताब्दी से हम पिटते आ रहे हैं। हमारा अपराध यही है कि हम सत्य, अहिंसा और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना में विश्वास रखते हैं और संसार के सभी मनुष्यों यहां तक की पशुओं को भी अपने समान ही आत्मा वाला अपना बन्धु समझते हैं। वर्तमान समय में जैसी परिस्थितियां हैं उसमें हमें अपनी रक्षा हेतु परस्पर संगठित होना ही होगा और अपनी मनुष्य जाति, धर्म, मत, विचारधारा, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित आदि पर आधारित सभी भेदभावों को भुला देना होगा। इसके साथ ही हमें अपने स्वजातीय धर्म बन्धुओं व उनके परिवारों की रक्षा भी करनी होगी। इसके लिये हमारे पास जो भी साधन हैं उसका 25 से 50 प्रतिशत भाग हमें अपने बन्धुओं के हित, सुख व कल्याण पर व्यय करना चाहिये। ऐसा करेंगे तभी हम बचेंगे। ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर किसी का साहस नहीं होगा कि कोई हमें अकारण प्रताड़ित करे। यदि प्रताड़ित करता है तो हमारे भीतर वह संगठित शक्ति होनी चाहिये कि हम अपनी रक्षा करते हुए आततायियों को उचित यथायोग्य सबक सीखा सकें।

परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया है। वह हमें सृष्टि में संगठित रहने के अनेक उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। सारे ब्रह्माण्ड के सभी सूर्य व अन्य ग्रह-उपग्रह आदि परस्पर संगठित एवं सहयोगी हैं। हमारा सौर मण्डल व इसके सभी ग्रह-उपग्रह आदि भी संगठित व परस्पर पूरक हैं। मधु-मक्खी का उदाहरण भी दिया जा सकता है। यदि कोई मक्खियों के छत्ते पर एक पत्थर मार देता है तो सभी मक्खियां उस पर झपट पड़ती है और पत्थर मारने वाले व्यक्ति को अपने प्राण बचाने कठिन हो जाते हैं। चींटियों को भी हम पंक्तिबद्ध अनुशासन में चलता हुआ देखते हैं। जंगलों में रहने वाले अहिंसक व हिंसक प्राणी भी समूहों में रहते हैं। पक्षियों को भी समूह में उड़ते देखा जाता है जो उनके संगठित जीवन का प्रतीक प्रतीत होता है। ईश्वर ज्ञान ऋग्वेद 10/191 में 4 मन्त्रों का एक संगठन-सूक्त आता है। आर्यसमाज के सत्संगों में इस संगठन का सूक्त का पाठ किया जाता है। इसमें कुछ विचार व पंक्तियां हैं प्रेम से मिलकर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनों पूर्वजों की भांति तुम कर्तव्य केमानी बनो। हो विचार समान सबके, चित्त मन सब एक हों, हो सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा। मन भरे हो प्रेम से जिससे बढ़े सुख सम्पदा’ आदि। वेदाज्ञा होने और ऐसा गीत गाने पर भी हम संगठित नहीं हो पाते। लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा आदि क्षुद्र स्वार्थों के कारण हम एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। दूसरे लोगों के पास वेद जैसी शिक्षायें न होने पर भी वह हमसे अधिक संगठित दीखते हैं और विवाद होने पर परिणाम की परवाह नहीं करते। देश, धर्म जाति की सुरक्षा के लिये संगठन की परम आवश्यकता है। इसी कारण से वेद, धर्म, ऋषि संस्कृति एवं वेद के मानने वालों की रक्षा के लिये ऋषि दयानन्द ने ‘‘आर्यसमाज” की स्थापना की थी। आर्यसमाज के नियम भी बनाये गये जिसमें सब आर्यों को सत्य को जीवन में प्रमुख स्थान देने को कहा गया है। यह भी कहा गया है कि मनुष्य को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। संगठन तभी चलते हैं जब वहां इस नियम का पालन किया जाता है। आर्यसमाज के बाद हिन्दुओं को सुरक्षित रखने के लिये आर.एस.एस. नाम का भी एक राष्ट्रीय संगठन बना था। इस संगठन ने भी देश व समाज की अच्छी सेवा की है। अभी इसके विस्तार एवं अन्यों के समान शक्तिशाली बनने की महती आवश्यकता है। यह भी लिखना आवश्यक है कि आर.एस.एस. एक राष्ट्रीय एवं देश एवं समाज का हितकारी संगठन है। राष्ट्र का गौरव एवं हित तथा भारतीय संस्कृति का सरंक्षण इस संगठन के लिये सर्वाेपरि है। यह बात अलग है कि वह ऋषि दयानन्द के सत्य व हितकारी विचारों तथा मान्यताओं को स्वीकार नहीं करते। इसके अतिरिक्त अन्य सभी संगठन भीतर से आर्यसमाज और आरएसएस जैसे राष्ट्रवादी नहीं हंै। आर्यसमाज एवं आर.एस.एस. अपनी-अपनी भूमिका भली प्रकार से निभायें और आवश्यकता पड़ने में संगठित होकर कार्य करें जिससे सनातन वेद के मानने वाले आस्तिक जन सुरक्षित रह सकें। ऐसा इसलिये कि इस बहुसंख्यक आर्य व हिन्दू समाज की इसके विरोधियों से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। इन्हें अपनी रक्षा स्वयं करनी है।

सभी देशों ने अपने यहां सेनायें रखी हुई हैं। इनका उद्देश्य बाहरी वा पड़ोसी देशों के आक्रमण से अपनी अपनी प्रजाओं की रक्षा करना है। कोई आक्रमण कब करेगा या नहीं इसका पता नहीं होता फिर भी सभी देश अपनी रक्षा के लिये सेनायें रखते हैं। हमें भी इनसे शिक्षा लेकर अपने आपको सुदृण बनाना है। यह तभी सम्भव है कि जब ईश्वर, वेद, राम, कृष्ण, चाणक्य और दयानन्द को मानने वालों में किसी प्रकार का मतभेद भेदभाव हो। मतभेद भेदभाव मनुष्य समाज को कमजोर बनाते हैं। इस बात को समझ कर हमें अपने सभी मतभेदों भेदभावों को दूर करना चाहिये। समाज में यदि अन्धविश्वास, पाखण्ड, अज्ञान तथा सामाजिक असमानता आदि है तो भी समाज सृदृण एवं संगठित नहीं हो सकता और असंगठित समाज अपने विरोधियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकता। हमें यदा कदा मुगल शासकों के हिन्दुओं पर अत्याचारों को भी स्मरण कर लेना चाहिये। क्या कारण था कि हमारे मन्दिर तोड़े गये, हमारे पूर्वजों व भाई-बन्धुओं का तलवार के जोर पर धर्मान्तरण किया गया तथा देश को लूटा गया। हमारे पूर्वज अपने इन शत्रुओं से देश व समाज की रक्षा न कर सके। कारण यही था कि वह संगठित नहीं थे। इतना ही नहीं वह अपनी माताओं, बहिन व बेटियों की रक्षा भी नहीं कर सके। अपनी रक्षा के प्रति सचेत व सावधान होना मनुष्य जाति व समुदाय का कर्तव्य होता है, हमारा भी है, इसे हमें समझना है। हमें सावधान करने हमारी रक्षा के लिये अब राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, हनुमान, भीष्म, भीम, परशुराम, शिवाजी, महाराणा प्रताप, बन्दा बैरागी एवं गुरु गोविन्द सिंह जी आदि नहीं आयेंगे। हमें अपनी रक्षा स्वयं ही करनी है।

वैदिक धर्म की शिक्षा है कि तो हमें किसी पर अत्याचार करना है और किसी का अत्याचार पव अन्याय सहन करना है। हम अत्याचार हों, इसके लिये ही हमें संगठित होना है। हम राम कृष्ण की तरह से धनुष और सुदर्शन चक्र तो धारण नहीं कर सकते परन्तु हमें संगठित अवश्य ही होना चाहिये। संगठन शक्ति में वह बल है जिससे दूसरे प्रतिद्वन्दियों का बल क्षीण हो जाता है। इजराइल इसका उदाहरण है। वह छोटा सा देश अपने ज्ञान, बल व संगठन से ही अपने देश के अस्तित्व को बचाये हुए है। यह एक छोटा देश हमारी भी सहायता करता है। हमें भी उसके जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन से भी यही शिक्षा मिलती है कि हम बलवान हों और संगठित हों। हमने यह लेख आर्य व अपने हिन्दुओं बन्धुओं को अपने मतभेद व भेदभाव दूर कर संगठित होने के लिये लिखा है। हमें अपनी रक्षा के लिए परमुखापेक्षी नहीं होना है अपितु अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ होना है। ऐसा होने पर ही हम सुरक्षित रह सकते हैं। देश का सौभाग्य है वर्तमान में सबका हित करने वाली सरकार केन्द्र में है। हमें मोदी जी व अमित शाह के नेतृत्व में देश को सशक्त बनाने में योगदान देना चाहिये। समझदार व्यक्ति को संकेत करना ही पर्याप्त होता है। हमने अपने कर्तव्य का पालन किया है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य