कविता

बदल गए हो दोस्त

सांचे में दुनियादारी के ढ़ल गए हो दोस्त

ऐसा लग रहा है कि बदल गए हो दोस्त

तुम्हारे हर कदम को सराहा सदा मैंने

मेरे कदमों से भला क्यों जल गए हो दोस्त

कल तलक न रंज कोई न थी कोई चोट

न कोई शिकवे गिले थे न कोई भी खोट

राजी हम सदा थे सब रस्में निभाने को

नाज अपनी दोस्ती पर था जमाने को

बंधन से दोस्ती की क्यों निकल गए हो दोस्त

ऐसा लग रहा है कि बदल गए हो दोस्त

इस दोस्ती से बढ़ के कोई ख्वाहिश ही न थी

भरोसा था शक की कोई गुंजाईश ही न थी

कहते थे तुम ये साथ अपना आसमानी है

चट्टान हैं हम दोस्ती अपनी चट्टानी है

चट्टान थे तो ऐसे क्यों पिघल गए हो दोस्त

ऐसा लग रहा है कि बदल गए हो दोस्त

मुंह मोड़ कर के राह तुमने ऐसी दिखाई

क्या कहूं मतभेद या इसे फिर बेवफाई

होके मुझसे बेखबर आजाद तू रहे

दोस्त मेरे हर ओर से आबाद तू रहे

हो अब मेरी आंखों से तुम ओझल गए हो दोस्त

ऐसा लग रहा है कि बदल गए हो दोस्त

ऐसा लग रहा है कि बदल गए हो दोस्त

— विक्रम कुमार

विक्रम कुमार

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