सामाजिक

शिक्षा या व्यवसाय

किसी देश या समाज के लिए” शिक्षा” भावी नागरिकों के व्यक्तित्व निर्माण, सामाजिक नियंत्रण, प्रगतिशील विचारधारा तथा सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का मापदंड होती है ।यह जन्म से लेकर मृत्यु तक अनवरत चलने वाली सोद्देश्य पूर्ण प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति सामाजिकता को अपनाकर अपनी संस्कृति की रक्षा करता है और सभ्यता रूपी रथ को आगे बढ़ाता है।स्वास्थ्य,सुरक्षा व शिक्षा की दृष्टि से सुदृढ़ राष्ट्र ही विश्व पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ सकता है। अनौपचारिक शिक्षा घरेलू वातावरण में जबकि औपचारिक शिक्षा विद्यालयों में प्रदान की जाती है ।विद्यालयों में देश व समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान कर योग्य नागरिक तैयार किए जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि देश का भविष्य कक्षा कक्ष में तैयार होता है।
हमारे देश में प्राचीन काल में गुरुकुल पद्धति से ज्ञानार्जन किया जाता था, जिसमें स्वतंत्र रूप से किंतु कठोर और अनुशासित वातावरण में शिक्षा ग्रहण की जाती थी। यह शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न होकर स्वावलंबन भी सिखाती थी। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्व विद्यालय अपनी ख्याति की कहानी स्वयं बयान करते हैं ,जहां विभिन्न देशों से लोग अध्ययन के लिए आते थे ।किंतु कालांतर में ब्रिटिश दासता के दौरान लागू की गई मैकाले की शिक्षा नीति ने समय दर समय शिक्षा के स्वरूप को विकृत किया ।दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली भी ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है जिसका मूल उद्देश्य नौकरी पाना रह गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उच्च शिक्षा और प्राविधिक शिक्षा का स्तर तो बढा है, किंतु प्राथमिक शिक्षा का आधार कमजोर होता चला गया ।देश में साक्षरता ,व्यावसायिक तथा प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर लूट खसूट, उच्च शिक्षण संस्थानों की लचर भूमिका तथा शिक्षकों का पेशेवर दृष्टिकोण वर्तमान में एक बड़े संकट के रूप में उभरा है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में,निजी करण तथा उदारीकरण की विचारधारा के कारण शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है ।शिक्षा को उत्पाद की दृष्टि से देखा जाने लगा है। बड़े- बड़े पूंजीपति एवं नेतागण इसे लाभदायक व्यवसाय के रूप में अपना रहे हैं। बड़े भू-भाग पर सर्व सुविधा युक्त विद्यालय ,महाविद्यालय स्थापित कर छात्रों और अभिभावकों को लुभाने व लूटने की होड़ में लगे हुए हैं ।शिक्षा के निजीकरण कर शिक्षण संस्थानों का एकमात्र ध्येय आमदनी बढ़ाकर अधिक से अधिक लाभ कमाना है। सरकारी स्कूलों में मानव और भौतिक दोनों संसाधनों की कमी है ,जिसके कारण निशुल्क शिक्षा व्यवस्था होते हुए भी अभिभावक अपने बच्चों को यहां प्रवेश दिलाने से कतराते हैं। प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों को यथासंभव बेहतर सुविधाएं व बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराना चाहता है। अतः वह निजी संस्थानों की ओर आकृष्ट होता है ।उनकी इस मनोदशा का यह संस्थान भरपूर लाभ उठाते हैं। एडमिशन के समय डोनेशन के नाम पर मोटी रकम वसूली जाती है। इसके अलावा यूनिफॉर्म, किताब ,कॉपियां और स्टेशनरी के अन्य सामान भी संबंधित संस्थान से ही खरीदने के लिए विवश किया जाता है ।धनाढ्य वर्ग तो यह सब झेल लेता है किंतु निम्न और मध्यम वर्गीय छात्रों को इससे दयनीय आर्थिक स्थिति से गुजरना पड़ता है ।उच्च शिक्षा में( विशेषकर चिकित्सा और तकनीकी शिक्षा क्षेत्र में )तो यह करोड़ों का खेल बन जाता है। इसके अतिरिक्त कंपटीशन में सफलता की गारंटी देने वाले असंख्य  निजी कोचिंग सेंटर बड़े शहरों, कस्बों और गली कूचे में अपना आधिपत्य स्थापित कर फल फूल रहे हैं।

शिक्षा के व्यवसायीकरण के लिए जहां एक ओर सरकार का शासकीय विद्यालयों के प्रति उपेक्षित रवैया है वहीं दूसरी ओर निश्चित तौर पर आम नागरिक भी कहीं न कहीं उत्तरदाई हैं ।इंग्लिश मीडियम और महंगे स्कूलों की होड़ में माता-पिता बिना सोचे समझे शामिल हो जाते हैं ।हमारे समाज में इंग्लिश मीडियम में दाखिला लेना स्टेटस सिंबल बन गया है ।अंग्रेजी न आने पर हीन भावना से ग्रसित लोग यह चाहते हैं कि उनका बच्चा फर्राटेदार इंग्लिश बोले ।इसके लिए मोटी से मोटी रकम देकर बच्चे का दाखिला कान्वेंट तथा पब्लिक स्कूलों में करवाते हैं। उस समय वह यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजी केवल एक भाषा तथा ज्ञान प्राप्ति का हिंदी की तरह ही एक माध्यम है ,ज्ञान का प्रतीक नहीं। युवा वर्ग भी बड़े संस्थानों में एडमिशन लेकर उसे सफलता का पर्याय मान लेता है।जबकि सच तो यह है कि बड़े संस्थानों में उपलब्ध शिक्षक केवल प्रभावी मार्गदर्शन दे सकते हैं सफलता की गारंटी तो स्वयं के प्रयास से ही दी जा सकती है।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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