कविता

जल

 

जल ही जीवन है
कहते कहते कंठ सूखा
बर्बाद किया पल-पल
हर रोज
बुद्धि की बात न कर
वो शून्य समान
चाहे कितनी करले खोज
बड़े घर महलों में बैठा
तूँ जल संकट मैं
चोखट में बैठा रोयेगा
धन संपत्ति खाक होगी
तूँ तन को निर्जल खोयेगा
बहा दिया तुने
देख कितना नहाने में
पूछ लातूर जाकर
कितना खर्चा होता है
दो बूँद कमाने में
एक त्रासदी को
जन्म दे रहा इंसा
कोशिश की नहीं
एक कदम
अब बोल ना पाये
ये सूखी जुबाँ
पीने के पानी का
हाहाकार मचा
तेरे कर्मो की
गरिब भूगत
रहे सजा
ये अमृत है
धरा पर
समान सबका हक है
खोल गीता,कुरान
के पन्ने
जो थोड़ा भी शक है
पानी से तन चलता
पानी से बना
सबका जीवन
पेड़ पौधे लहराये
हरा भरा इससे
उपवन
तेरा अकेला आधिपत्य नहीं
किसी नदी,सागर पर
चिड़ियाँ का उतना ही हक है
बूँद बूँद की गागर पर
जल की महिमा
मैं बताऊँ
समझ जा मानव
अब और क्या समझाँऊ ?
बेशक मानव तेरी
उन्नति कितनी विशाल है!!!
संभल जा अब
ना तो जल संकट ही
तेरा काल है

 

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733